Tuesday, October 25, 2011

जीनियस, राजनीति, प्यार और ट्रेजडी ! (भाग २)

भाग १

इसी दौरान गैल्वा पर एक बड़ी विपत्ति तब आई जब उसके पिता ने आत्म हत्या कर ली. किसी पादरी ने उसके परिवार के खिलाफ कुछ आपत्तीजनक कागजात जनता में बंटवा दिया. जिसके बाद उसके पिता ने आत्म हत्या कर ली. जब गैल्वा अपने पिता की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए आये उस समय सडको पर दंगे की सी स्थिति थी. इस घटना के बाद गैल्वा के दिमाग में एक बात घर कर गयी - ‘संसार में कहीं भी न्याय नहीं है !’

इस बीच शिक्षक बनने का ख्याल भी गैल्वा के दिमाग में आया पर उसके शिक्षकों ने गणित और भौतिकी में अच्छे अंक आने के बावजूद साहित्य में कम अंक आने पर टिपण्णी लिखी कि ‘इसे कुछ नहीं आता, कम मेधा का ये विद्यार्थी कभी शिक्षक नहीं हो सकता !’

इकोल पोलिटेक्निक की जगह अक्टूबर १८२९ में गैल्वा ने इकोल नोर्मले सुपिरियेर में दाखिला लिया लेकिन विद्यालय के प्रशासकों से राजनीतिक मतभेद के चलते उन्हें ‘अस्वीकार्य व्यवहार’ का बहाना लेकर दिसम्बर १८३० में निष्कासित कर दिया गया.

१९ वर्ष की आयु में बीजगणितीय समीकरणों पर गैल्वा ने उस समय तक के गणितीय सिद्धांतों से आगे काम करते हुए नए सिद्धांतों पर तीन नए शोध पत्र तैयार किये और उन पत्रों को फ़्रांस की अकादमी में उच्चतम पुरस्कार के लिए जमा किया. उन अद्भुत पत्रों और उनके रचयिता गैल्वा के साथ एक बार फिर बिडम्बना हुई. अकादमी के सचिव तक इस बार पत्र तो पँहुचे जिसे वो समीक्षा करने के लिए अपने घर तक भी ले गया लेकिन समीक्षा करने के पहले ही वो सचिव चल बसा ! गैल्वा के मन में संसार में अन्याय होने की भावना बढती गयी और वो रिपब्लिकन पार्टी में शामिल हो गया जो उस समय तक प्रतिबंधित कर दी गयी थी. जब उसने १८३० की क्रांति में भाग लेना चाहा तो विद्यालय के निदेशक ने उन्हें विद्यालय में ही कैद करवा दिया. इसके बाद गैल्वा ने विद्यालयों की पत्रिका गजेट दे एकोल्स में एक पत्र लिखा जिसके कारण ही उन्हें विद्यालय से निष्कासित किया गया था.

गैल्वा ने गणित पढाने की कोशिश भी की. पर वो अपने विचार ही पढाने लग जाते... नतीजा वही... विद्यार्थी मिले नहीं... जो मिले वो भी कुछ ही दिनों में भाग गए. गैल्वा ने अपने समीकरणों के सिद्धांत पर शोधपत्र छपवाने का आखिरी प्रयास पोसोन के कहने पर किया. लेकिन उसके बाद उसने अपने आपको पूरी तरह राजनीति और क्रांति को समर्पित कर दिया. इन्हीं द्दिनो गैल्वा ने लिखा ‘अगर जनता को आन्दोलित करने के लिए एक लाश चाहिए तो मैं अपना शारीर दान कर दूँगा !’

१८३१ में रिपब्लिकनों के एक सम्मलेन में वो राजशाही के खिलाफ बोला और रातों रात प्रसिद्द हो गया. लेकिन राजनीति में ये बात फ़ैल गयी कि गैल्वा ने उस सम्मलेन में राजा की जान लेने का संकल्प लिया है और अगले ही दिन उसे गिरफ्तार कर लिया गया. वकील ने ‘नरो वा कुंजरो’ नीति का सहारा लिया और कहा कि गैल्वा ने उस सम्मलेन में कहा था कि ‘मैं इस राजा की जान ले लूँगा अगर वो देशद्रोही हो जाता है’. वकील ने कहा कि शोर में बाद का हिस्सा सिपाही नहीं सुन पाए थे. गैल्वा ने इस बात को मानने से इनकार कर दिया... लेकिन फिर भी न्यायधीश ने उन्हें रिहा कर दिया.

पर अगले ही महीने उन्हें फिर सावधानी बरतने के नाम पर गिरफ्तार कर लिया गया. उस समय वो उस सेना की वर्दी पहने हुए थे जो प्रतिबंधित की जा चुकी थी और इस कारण से उन्हें तीन की जगह ६ महीने की सजा हो गयी. १८३२ के हैजा प्रकोप के समय उन्हें जेल से अस्पताल में स्थान्तरित कर दिया गया. ‘महत्त्वपूर्ण राजनितिक बंदी’ की श्रेणी में होने के कारण उन्हें यहाँ कोई दिक्कत तो नहीं होती थी. लेकिन किस्मत में कुछ और लिखा था...

इसी दौरान गैल्वा को पहली मुहब्बत हुई... जेल में कैदियों से मिलने वालों में एक हसीना भी थी. जिससे गैल्वा को प्यार हो गया. कई लोग मानते हैं कि वो उनके एक राजनितिक दोस्त की गर्लफ्रेंड थी. पर इस पर एकमत नहीं है. कुछ लोग उसे डॉक्टर की बेटी बताते हैं. इस मामले में भी उन्हें असफलता ही नसीब हुई और गैल्वा का दुनिया से भरोसा ही उठ गया. २५ मई १८३२ को उन्होंने ये बात अपने एक दोस्त को पत्र में लिखा था. ये प्यार गैल्वा के त्रस्त और उपेक्षित जीवन का आखिरी झटका साबित हुआ।

प्यार में मिले धोखे से निराश और दुखी पत्र लिखने के चार दिन बाद २९ मई को वो आराम और ध्यान करने के विचार से जेल से रिहा हुए थे. लेकिन इन चार दिनों के दौरान क्या हुआ किसी को ठीक-ठीक नहीं पता ! इसके बाद के मिले २-३ चिट्ठियों में गैल्वा ने बस इतना कहा कि उन्हें दो अन्य देशभक्तों से द्वंद्व (डुएल) की चुनौती मिली है जिसे वो मना नहीं कर सकते॰  गैल्वा की जीवनी लिखने वालों में से अधिकतर इसे प्यार वाले किस्से से जोडते हैं लेकिन कई इसे सिर्फ राजनीति से ही जोडते हैं. कुछ लोग इसे राजशाही द्वारा उनके खिलाफ किया गया षड्यंत्र भी मानते हैं.

गैल्वा को इस द्वंद्व में अपनी मौत का पूर्ण विश्वास हो गया था और उन्होंने अपने मित्र को लिखे एक पत्र में लिखा: ‘मुझे दो देशभक्तों ने द्वंद्व की चुनौती दी है – इसे अस्वीकार करना मेरे लिए असंभव था. मैं तुम दोनों से माफ़ी चाहता हूँ कि मैंने तुम्हे इसके बारे में पहले नहीं बताया. लेकिन मेरे विरोधीयों ने मेरे सम्मान को ललकार कर कहा था कि मैं किसी और देशभक्त को इसके बारे में ना बताऊँ. मेरे बाद तुम्हारा काम बहुत आसान है: ये साबित करना कि मैंने खुद नहीं चाहते हुए भी लड़ाई की... हर तरह की कोशिश करने के बाद त्रस्त होकर... मेरी यादों को बचा कर रखना क्योंकि भाग्य ने मुझे इतनी जिंदगी नहीं दी कि मेरा देश मेरा नाम जान सके. मैं मरता हूँ. तुम्हारा मित्र – इ. गैल्वास

इस पत्र को लिखने के बाद गैल्वा ने एक रात भर में अपने गणितीय सोच को कागज पर उतारने का फैसला किया. उन्हें पता था कि उनके पास बस आज की ही रात बची है। थोड़ी-थोड़ी देर बाद वो हाशिए पर लिखते जाते ‘मेरे पास समय नहीं है’. और कई बार बस अपनी सोच की रुपरेखा ही लिखते चले गए. ये एक रात का लिखा गणितीय खाका आने वाले समय में सदियों तक गणितज्ञों को व्यस्त रखेगा ये भला उनको कम मेधा का असामान्य विद्यार्थी कहने वाले शिक्षक कैसे सोच सकते थे ! उस रात ग्रुप्स और समीकरणों पर दिए गए उनके सिद्धांत विलक्षण और उच्च कोटि के थे (हैं). उन्होने उस रात कुल ६५ पन्ने लिखे।

१४ साल बाद लूविले ने उनके लिखे ६५ पन्नों को सम्पादित किया.

गैल्वा ने अपनी वसीयत अपने मित्र औगास्ते शेवेलियर को लिखी जिसमें उन्होंने लिखा था ‘मेरे दोस्त, मैंने गणितीय विश्लेषण में कुछ नए आविष्कार किये हैं. जैकोबी और गॉस से सार्वजनिक रूप से इस पर प्रतिक्रिया देने को कहना. उनसे ये मत पूछना कि ये सही हैं या नहीं बल्कि ये कि ये कितने महत्तवपूर्ण हैं ! मैं आशा करता हूँ कि बाद में कभी कुछ लोग ऐसे भी होंगे जिन्हें इस झंझट(मेस) को पढ़ना और सुलझाना उपयोगी लगेगा’। कौशी का नाम उन्होने पत्र में कहीं नहीं लिखा। उन्होने किसी अन्य फ्रेंच गणितज्ञ का नाम भी नहीं लिखा। जैकोबी और गॉस दोनों जर्मन थे।

२९ मई १८३२ को रात भर अपने विचार लिखने के बाद ३० मई को सुबह द्वंद्व हुआ. कुछ लोगों को एक खेत में अकेले असहाय घायल अवस्था में गोली लगे गैल्वा मिले जिन्हें वहाँ से अस्पताल ले जाया गया. जहाँ उनकी मौत ३१ मई को हुई. उन्होंने मरते समय पादरी की सहायता लेने से मना कर दिया और अपने छोटे भाई से कहा ‘रो मत, मुझे २० वर्ष की उम्र में मरने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए.’

उनके बारे में खूब लिखा गया है. लेकिन सिर्फ २० वर्ष की जिंदगी से बहुत दस्तावेज या जानकारी नहीं मिलती. ज्यादातर लेखक उनके जीवन के रोमांटिक किस्से को बहुत बढ़ा चढा कर लिखते हैं. जबकि उनके पत्रों से ज्यादा राजनीतिक पक्ष सामने आता है.

गणित की दृष्टि से गैल्वा ने इस कम उम्र में ही अद्भुत काम किये. अब्स्ट्रेक्ट imageअलजेब्रा के लिए उनके विचार क्रन्तिकारी थे. उन्नीसवीं सदी के अंत में जब फिल्ड के सिद्धांत का विकास हुआ तो पता चला कि इनमे से ज्यादातर बातें गैल्वा ने अपने पहले पत्र में ही कह दी थी. ग्रुप्स के सिद्धांत का भी विकास उन्ही के विचारों से हुआ. उनके लिखे पत्रों और बाद के कुछ शोधपत्रों को मिलाकर गणित में एक नयी विचारधारा का जन्म हुआ. समीकरणों का सिद्धांत, ग्रुप सिद्धांत, फाइनाईट फिल्ड और उनके नाम पर पड़ा गैल्वास सिद्धांत उनके गणित में महत्त्वपूर्ण योगदान हैं.

मरने के कुछ दिन पहले उन्होंने कहा था ‘कुछ लोग अच्छा करने के लिए धरती पर आते हैं लेकिन उसका अनुभव करने के लिए नहीं रह पाते. मैं भी शायद उनमें से एक हूँ!’.

गैल्वा को सार्वकालिक महानतम गणितज्ञों में गिना जाता है। आज उनका दो सौवां जन्मदिन है !

मैंने ये सब इन जगहों पर पढ़ा:

१॰ मेन ऑफ मैथेमेटिक्स

२. ऑफ मेन एंड नम्बर्स

३. प्रिंसटन कम्पेनियन टू मैथेमेटिक्स

चित्र:विकिपीडिया से

~Abhishek Ojha~

Thursday, October 20, 2011

जीनियस, राजनीति, प्यार और ट्रेजडी !

जिसकी पूरी जिंदगी ही बीस साल की हो उसके जीवन पर बहुत कुछ कहने को क्या होगा? लेकिन कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जिनकी जिंदगी के एक दिन पर ग्रन्थ लिख दिए जाते हैं फिर बीस साल तो बहुत होते हैं ! ऐसी ही एक शख्सियत थे एवारिस्ट गैल्वा !

गाँव के मुखिया, आजादी के दीवाने और बुद्धिजीवी पिता तथा बिना तर्क धर्म को ना मानने वाली धार्मिक माँ के पुत्र गैल्वा का जन्म २५ अक्टूबर १८११ को फ़्रांस में हुआ था. गाँव के मुखिया के रूप में गैल्वा के पिता गाँव वालों को हमेशा पादरियों से बचाते थे. इस कारण पादरियों से हमेशा ही उनकी अनबन रही॰ १२ साल की उम्र तक इस बालक के दिन बहुत अच्छे गुजरे॰ उसकी पढाई घर पर ही हुई इस दौरान कभी-कभी वो अपने पिता के भाषण भी लिखा करता. प्रारंभिक शिक्षा अपनी माँ से ही मिली और इसका बालक पर गहरा असर पड़ा. घर के वातावरण ने भी उसे तार्किक और निरंकुशता का विरोधी बनाया॰

१२ साल की उम्र में पेरिस के प्रतिष्ठित लाइसी-लुई-ले-ग्रांड स्कूल में दाखिले के साथ ही गैल्वा के बुरे दिनों की शुरुआत हो गयी. लाइसी-ले-ग्रांड एक विद्यालय से अधिक जेल था. कठोर अनुसाशन और एक खास तरीके से ही पढाई करने के रूढ़िवादी तरीके वाले इस विद्यालय में कोई भी गैल्वा की प्रतिभा को कभी समझ ही नहीं पाया. ये समय फ़्रांस की राजनीति में भी उथल पुथल का युग था और राजनीति में भाग लेने के कारण समय-समय पर विद्यालय से बच्चे निकाले जाते रहे पर गैल्वा का ये दुर्भाग्य ही था कि उसका नाम ऐसी किसी सूची में कभी नहीं आ पाया. और वो विद्यालय में उपेक्षित होता रहा।

लाइसी-ले-ग्रांड में मुख्य रूप से ग्रीक और लैटिन पढाए जाते थे. इन विषयों में अच्छा नहीं कर पाने के कारण गैल्वा को नीचे की कक्षा में भेज दिया गया. इसी दौरान बोरियत से दूर होने के लिए गैल्वा ने गणित पढ़ना चालु किया. उस समय गणित सिर्फ एक वैकल्पिक विषय के रूप में पढाया जाता था और उसे अहमियत नहीं दी जाती थी. इन्हीं दिनों गैल्वा के हाथ लिजेंद्रे की लिखी ज्यामिति की किताब लग गयी. ये किताब पढ़ने-पढाने में साधारणतया दो साल लगते थे और केवल प्रशिक्षित गणितज्ञ ही इस किताब को पढते थे. एक महान गणितज्ञ द्वारा लिखी गयी यह मौलिक गणित की किताब थी. पर उस बालक ने कुछ ही दिनों में उस पुस्तक को निपटा डाला ! उन्हीं दिनों उसके हाथ में एक बीजगणित की पाठ्यपुस्तक भी लगी पर गैल्वा ने ये कहते हुए उसे नहीं पढ़ा कि उस पुस्तक में ‘सिरजनहार का स्पर्श’ (क्रिएटर'स टच) वाली बात नहीं है. यह एक पाठ्य पुस्तक थी ज्यामिती की उस किताब की तरह एक विद्वान का लिखा मौलिक ग्रंथ नहीं था॰  बाद में लाग्रंजे और एबेल के बीजगणितीय विश्लेषण की किताबों को गैल्वा ने पढ़ा. १४ वर्ष का यह बालक गणितीय उस्तादों की बातों में स्वाध्याय से ही निपुण हो गया. उसे एहसास भी हो गया कि वो खुद भी उन उस्तादों की तरह ही मौलिक सोच रखता है !

गैल्वा ने गणित कभी कागज-कलम लेकर नहीं पढ़ा. वो हमेशा सबकुछ अपने दिमाग में ही करता और इस कारण वो हमेशा एक औसत विद्यार्थी ही बना रहा. बहुत सी चीजें उसके लिए जाहिर सी बात होती थी और वो उन्हें कभी लिखता नहीं था. कक्षा में कभी ध्यान नहीं देकर अपनी ही सोच में खोया रहने वाला गैल्वा गुस्सैल किस्म का बालक भी था॰ जब उसकी बातों को लोग नहीं समझते तो उसका गुस्सा और क्षोभ और बढ़ता गया. उसके शिक्षक बुरे नहीं थे पर गैल्वा जैसे विद्यार्थी को समझ पाने के लिए मुर्ख थे ! गैल्वा अपने आप पर गर्वित होता और सोचता कि मैं महान गणितज्ञों के बराबर हूँ. पर उसके शिक्षक उसके आकलन में हमेशा ही टिपण्णी करते कि ‘यह विद्यार्थी अजीब (स्ट्रेंज) है’ ! कुछ ने जरूर कहा कि इसमें गणितीय कौशल है.

१६ वर्ष की आयु में उसने एक सवाल पर काम किया और एक गलत कल्पना की वजह से उसे लगा कि उसने उस सवाल को हल कर लिया है जिसे हल ही नहीं किया जा सकता. तब उसके शिक्षक वर्निअर ने उसे सलाह दी कि वो गणित व्यवस्थित तरीके से करे. लेकिन गैल्वा का ये तरीका आता ही नहीं था ! उसने फैसला किया कि वो इकोल पोलिटेक्निक में नामांकन लेगा जहां उसके प्रतिभा की सही पहचान  होगी. इकोल पोलिटेक्नीक फ़्रांस में उस समय गणित का सर्वश्रेष्ठ केन्द्र था. पर वो प्रवेश परीक्षा में फेल हो गया. वहाँ भी शिक्षक उसके कौशल को समझ नहीं पाए. कुछ वर्षों बाद नोवेल्स ऐनल्ज डे मैथेमेटिक्स में टेरक्वेम ने इस घटना को याद करते हुए लिखा कि ‘उस दिन एक निम्न कोटि के परीक्षक ने एक उच्च कोटि के परीक्षार्थी को अस्वीकार किया था’.

१७ साल की अवस्था में गैल्वा का परिचय उच्च गणित के शिक्षक लुईस-पौल-एमिले-रिचर्ड नामक से हुआ. जिन्होंने पहली बार गैल्वा की प्रतिभा को थोडा बहुत समझा और उन्होंने कहा कि ये छात्र ‘फ़्रांस का एबेल है और इसका नाम इकोल पोलिटेक्निक में बिना किसी परीक्षा के लिखा जाना चाहिए’ ! उन्होंने गैल्वा को अपने विषय में प्रथम स्थान दिया और टिपण्णी में लिखा कि यह लड़का अपने बाकी सभी साथीयों से अधिक मेधावी है और उच्च गणित की समझ रखता है. गैल्वा ने इस प्रोत्साहन के बाद अपना पहला शोधपत्र १८२९ में छपने के लिए भेजा... अभी उसकी उम्र १८ वर्ष नहीं हुई थी. और और जीवन के २ वर्ष ही बचे थे। दुर्भाग्यवश उन दो वर्षों में भी केवल ट्रेजडी ही बची थी। 

महान गणितज्ञ कौशी उस समय फ़्रांस में गणित के एक स्तंभ की तरह थे. उस समय के सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ ! दुर्भाग्य ही है कि उन्होंने एबेल और गैल्वा दोनों को ही नजरअंदाज किया. उन तक पंहुचा गैल्वा का शोधपत्र कहीं खो गया... शायद उनके कचरे के डब्बे में ! विद्यालय उसी तरह गैल्वा को उपेक्षित करता रहा और कमजोर-असामान्य विद्यार्थी होने की सजा देता रहा.

गैल्वा ने एक बार फिर इकोल पोलिटेक्निक में प्रवेश लेने की कोशिश की और फिर से उसे असफलता ही हाथ लगी. अपने दिमाग में ही गणित हल करने वाले गैल्वा को ब्लैकबोर्ड, चाक और डस्टर का कोई उपयोग नहीं दिखा और ना ही वो सवालों का जवाब उस तरीके से दे पाया जैसा परीक्षक सुनना चाहता था. साक्षात्कार के बीच में ही एक बार फिर अपने आपको उपेक्षित होता और इकोल पोलिटेक्निक में पढ़ने की अपने जीवन की सबसे बड़ी आशा को विफल होता देख गैल्वा ने डस्टर का उपयोग आखिरकार किया और उसे चलाकर परीक्षक को दे मारा !

(जारी)

Monday, September 26, 2011

पाई बनाम टाऊ ! - गणित के कठिन  होने का एक कारण?

‘पाई गलत है !’

- इस नाम का एक आलेख और ‘टाऊ मैनिफेस्टो’ नामक एक अन्य दस्तावेज इन्टरनेट पर पिछले कुछ महीने में बहुत लोकप्रिय हुए हैं। इनका कहना है कि पाई गलत है ! और उसकी जगह टाऊ का उपयोग होना चाहिए।

टाऊ के समर्थकों का कहना है कि अगर पाई की जगह टाऊ इस्तेमाल करें तो गणित, भौतिकी इत्यादि में जहां कहीं भी पाई का इस्तेमाल होता है वो सब कुछ समझने में ज्यादा आसानी होगी और सब कुछ ज्यादा तर्कसंगत और इंट्यूटिव लगेगा।

पाई जो सदियों से गणित का सबसे लोकप्रिय अंक और प्रतीक रहा है को इन दस्तावेजों में गलत करार दिया गया है. सबसे पहले आपको काम की ही बात बता दूँ यहाँ पाई गलत होना (Pi is wrong !) कहना थोड़ा भ्रामक है। वास्तव में ये भी यह नहीं कह रहे कि पाई गलत है - बल्कि यह कि पाई अव्यवहारिक है। वैसे ही जैसे अपनी नाक को पकड़ना हो तो हाथ को गर्दन के पीछे से घुमाकर भी यह काम किया जा सकता है पर जब आसानी से नाक पकड़ी जा सकती है तो इतना करने का क्या लाभ? टाऊ समर्थकों के अनुसार टाऊ गणित समझने को थोड़ा आसान बनाता है - पाई थोड़ा कठिन !

पाई का अर्थ होता है वृत्त की परिधि और व्यास का अनुपात। टाऊ का अर्थ है वृत्त की परिधि और त्रिज्या का अनुपात। अर्थात टाऊ हुआ पाई का दोगुना ! बस इतनी सी बात है - पाई की जगह टाऊ बट्टे दो लिख देना है। और टाऊ का मान पाई का दोगुना अर्थात ६.२८...।

इससे गणित और साथ ही दूसरे किसी विज्ञान का कोई भी नियम नहीं बदलेगा। बस इतना होगा कि गणितीय सूत्र यथा नाम तथा गुण के थोडे करीब हो जाएँगे। और इस प्रकार गणित के नियम समझने में थोड़ी आसानी होगी।

अभी अधिकतर सूत्रों में २*पाई लिखना पड़ता है। टाऊ का इस्तेमाल करने पर बार बार २ नहीं लिखना पड़ेगा। बात बस इतनी सी ही नहीं है - एक पूर्ण फेरे से बने कोण को अभी हम २*पाई कहते हैं, आधे को पाई और एक चौथाई को पाई बट्टे २ इत्यादि। अगर हम एक फेरे से बने कोण को टाऊ कहने लगें तो आधे के लिए टाऊ बट्टे २ और चौथाई के लिए टाऊ बट्टे ४ कहेंगे जो ज्यादा इंट्यूटिव है। अगर हम पाई की जगह टाऊ लिखने लगें तो आश्चर्यजनक रूप से इंट्यूटिव लगने के अलावा गणित, भौतिकी और अभियांत्रिकी के कई कठिन सूत्र भी आसान हो जाएँगे ! जैसे गणित का वो खूबसूरत समीकरण जिसकी चर्चा इस पोस्ट में है वो कुछ यूं हो जाएगा... image

इन दो दस्तावेजों में इसे बखूबी समझाया गया है।

१॰ पाई इज रोंग

२. टाऊ मैनिफेस्टो

इन्हें नहीं पढ़ना हो तो कोई बात नहीं लेकिन ये वीडियो जरूर देखें। ये लड़की गणित बहुत जल्दी में अच्छे से पढ़ाती है। ...असली 'क्यूट' मार्क देखकर ही गणित पढ़ना हो तो कुछ कुछ इसी टाईप का ही होगा :)

अंत में काम की बात: आगे से कभी बात चले तो कहिएगा कि गणितज्ञों ने ही उलटा पढ़ा दिया नहीं तो गणित तो सच में बहुत हल्का होता है। हमें तो बस पाई की जगह टाऊ पढ़ा दिया होता तो हम भी आज....!  बात बस इतनी सी थी और...

वैसे इसके खिलाफ पाई समर्थकों ने भी पाई का मैनिफेस्टो बनाया है। और उधर जैसे ३/१४ (१४ मार्च) को पाई डे मनाया जाता है उसी तर्ज पर ६/२८ (२८ जून) को ताऊ डे मनाया जाने लगा है। आप पढ़ के आइये बहुत रोचक लिंक हैं।

~Abhishek Ojha~

इस पोस्ट को लिखवाने के लिए 'ब्रह्मांड निवासी - अन्तरिक्ष विचरईया' आशीषजी का शुक्रिया।

इस ब्लॉग के पोस्ट पर (इरिसपेक्टिव ऑफ अपडेट फ्रेक्वेंसि ऐंड क्वालिटी ऑफ पोस्ट) जरूर प्रतिक्रिया देने वाले डॉ अमर कुमार को ये ब्लॉग हमेशा बहुत मिस करता रहेगा। और इस बहाने उनसे होने वाली बातचीत को मैं :(

Sunday, June 12, 2011

एक ख़ूबसूरत समीकरण

बचपन में गणित की कक्षाओं में पढ़ाया जाता है वर्ग और वर्गमूल. वर्ग अर्थात किसी संख्या को उसी संख्या से गुणा कर दिया जाय तो वर्ग निकल आता है. फिर पढ़ाया जाता है घात अर्थात किसी संख्या के ऊपर जितने का घात हो संख्या को खुद के साथ उतनी बार गुणा. फिर वर्गमूल, घनमूल इत्यादि. साथ में ये बताया जाता है कि वर्गमूल केवल धनात्मक संख्याओं का ही होता है. इन्हीं दिनों ज्यामिति में परिचय होता है वृत्त के परिधि, त्रिज्या से होते हुए ‘पाई’ नामक संख्या से भी. पाई किसी भी वृत्त के परिधि और व्यास के अनुपात से प्राप्त संख्या को कहते हैं. फिर थोडा और आगे बढ़ने पर लघुगणक (लॉगरिदम) पढ़ते हुए परिचय होता है एक और संख्या ‘इ’ से. (वैसे शायद इस संख्या से पहला परिचय कैलकुलस पढते हुए होता है). पाई और ई गणित ही नहीं विज्ञान और अभियांत्रिकी की हर शाखा में खूब इस्तेमाल किये जाने वाले अंक हैं. गणितीय शब्दावली में दोनों अपरिमेय और ट्रान्सेंडैंटल हैं. दशमलव के रूप में लिखा जाय तो दोनों अनंत तक जाते हैं…

फिर गणित पढते हुए एक दिन एक काल्पनिक संख्या आई से परिचय होता है. और इस संख्या से एक अलग अध्याय चालु होता है मिश्रित संख्याओं का. इन्हीं दिनों ये पता चलता है कि बचपन में पढ़ी गयी बात ‘वर्गमूल केवल धनात्मक संख्याओं का ही होता है’ उन्ही लोगों के लिए पढाई जाती हैं जिन्हें गणित बस जोड़-घटाव तक ही पढ़ना होता है. और -१ के वर्गमूल जिसे ‘आई’ भी कहते हैं के साथ एक नयी काल्पनिक दुनिया का आरम्भ होता है. ये काल्पनिकता भी खूब इस्तेमाल होती है. पाई, इ और आई संभवतः विज्ञान और अभियांत्रिकी के सबसे अधिक लिखे जाने वाले गणितीय अंक चिह्न अंक हैं.

इन तीनों अंको के साथ अगर जोड़-घटाव,गुणा-भाग आता हो तो इस समीकरण मेंeuler's equation इसके अलावा कुछ और नहीं है. लेकिन इस समीकरण का मतलब क्या है? महान गणितज्ञ ओय्लर का दिया गया ये समीकरण गणित का सबसे खूबसूरत समीकरण कहा जाता है. (समीकरण चित्र में)

विकिपीडिया क एक पैराग्राफ कुछ यूँ कहता है इस समीकरण के बारे में:


मैथेमेटिकल इंटेलीजेंसर पत्रिका के पाठकों के बीच कराये गए मत के अनुसार ओय्लर का तादात्मय ‘गणित का सबसे खूबसूरत प्रमेय’ है. इसी तरह फिजिक्स वर्ल्ड पत्रिका के पाठकों ने भी २००४ में इसे मैक्सवेल के विद्युत चुम्बकत्व के समीकरण के साथ ‘सर्वकालिक महानतम समीकरण’ चुना. २००६ में न्यू हम्प्शायर विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफ़ेसर पॉल नहीन ने इस समीकरण  पर ४०० पन्नों की ‘डॉ. ओय्लर'स फैबुलस फोर्मुला’ नामक किताब लिखी. इस पुस्तक में उन्होंने इसे ‘गणितीय सुंदरता का सुनहरा मानक’ होने की संज्ञा दी. कोंसटेंस रीड ने इसे ‘सम्पूर्ण गणित का सबसे प्रसिद्द सूत्र’ कहा. कहते हैं एक बार गणितज्ञ गॉस ने टिपण्णी की कि अगर ये सूत्र किसी गणित के छात्र को बताते ही अगर स्पष्ट रूप से समझ में ना आये तो वो छात्र कभी उत्कृष्ट गणितज्ञ नहीं बन सकता. उन्नीसवीं सदी के विख्यात दार्शिनिक, गणितज्ञ और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर बेंजामिन पियर्स ने एक व्याख्यान में इसे साबित करने के बाद कहा: ‘ये पूर्णतया विरोधाभासी है, हम इसे समझ नहीं सकते, हमें नहीं पता कि इसका अर्थ क्या है लेकिन चूँकि हमने इसे सिद्ध किया है तो हम जानते हैं कि ये सच है.’ स्टैंफर्ड विश्वविद्यालय के गणितज्ञ प्रो कीथ डेवलिन ने कहा ‘जैसे शेक्सपियर की एक लंबी कविता प्रेम के असली तत्व को कैद करती है, जैसे एक चित्रकार गहरी मानवीय सुंदरता को उकेरता है वैसे ही ओय्लर का समीकरण अस्तित्व  की गहराई तक पंहुचता है’. [ये पूरा पैराग्राफ विकिपीडिया के एक पैराग्राफ का अनुवाद है. बुरे अनुवाद के लिये हमारी तरफ से ‘सॉरी’ रहेगा.]

एक अंक जो दशमलव में लिखने पर अनंत तक जाता है वो वृत्त के परिधि और व्यास से आया. साथ में एक वैसी ही अजीबो गरीब संख्या ‘इ’. ‘आई’ जो कि काल्पनिक है. और ओय्लर ने कहा कि ‘इ’ पर अगर ‘आई’ और ‘पाई’ के गुणनफल का घात लगा दें तो वो -१ हो जाएगा ! इतने अजीबो गरीब मिलन का इतना साधारण परिणाम ‘१’.

सबसे पहले तो हमने यही पढ़ा होता है कि किसी भी धनात्मक संख्या पर अगर किसी धनात्मक या ऋणात्मक संख्या का घात लगाएं तो परिणाम ऋणात्मक नहीं होता. अगर साधारण तरीके से सोचें तो एक काल्पनिक संख्या और ‘पाई’ के गुणनफल का कुछ अर्थ हो सकता है क्या? फिर ‘इ’ और उसके ऊपर ये विकट काल्पनिक घात. अगर बचपन की पढ़ी बात से समझें तो ‘इ’ को ‘इ’ से ही गुणा करना है, लेकिन कितनी बार? ‘एक काल्पनिक संख्या से गुणा किये हुए अनंत तक जाने वाली संख्या के गुणनफल के बराबर?’ ! विचित्र ! और इस विकटता का हल अत्यंत ही साधारण याने -१. (अगर e(x) का विस्तार और त्रिकोणमिति के sin(x) और cos(x) के विस्तार पता हों तो इसका प्रमाण भी ऐसा ही साधारण होता है.)

विकटता के मिश्रण से उपजी सरलता इस समीकरण को खूबसूरत बना देती है. मुझे अपने एक पुराने मॉडर्न आर्ट पर लिखे गए पोस्ट की याद आ रही है. अगर आपने यहाँ तक पढ़ा है तो इस समीकरण पर बने कुछ कार्टून भी देखते जाएँ. मैं क्या कहूँ. अपने काजल कुमार जी बेहतर व्याख्या कर पायेंगे कार्टूनी सुंदरता.


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आई और पाई पर पर एक ये भी:

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~Abhishek Ojha~

Sunday, May 29, 2011

आंद्रे ब्लॉक: एक खतरनाक ज्ञानी


रामानुजन के मार्गदर्शक और जी एच हार्डी के सहयोगी जे ई लिटिलवूड ने एक बार कहा था: 'गणित एक खतरनाक पेशा है, और हम गणितज्ञों में से एक अच्छा ख़ासा हिस्सा  पागल हो जाता है'.

आंद्रे ब्लाक (Andre bloch) पिछली सदी के एक प्रसिद्द फ़्रांसिसी गणितज्ञ थे. मिश्रित फलन के सिद्धांतों (complex function theory) पर दिया गया उनका 'ब्लॉक प्रमेय' गणित के खूबसूरत प्रमेयों में आता है. आंद्रे ब्लॉक  के बारे में कई विरोधाभासी कहानियाँ प्रसिद्द हैं. उन्होंने कई प्रसिद्ध गणितज्ञों के साथ पत्राचार तो किया पर कभी किसी से मिले नहीं. कहते हैं जोर्ज पोल्या ने जब उन्हें ज्यूरिक बुलाया तो उन्होंने ये कह दिया कि उनकी स्थिति ऐसी नहीं कि वो ज़्यूरिक आ सकें.  जब पोल्या उनके बताए पते पर पँहुचे तो पता चला कि वो एक पागलखाने का पता था. पोल्या उस पागलखाने  के दरवाजे से लौट आये. (वैसे बाद में पोल्या ने ऐसी किसी घटना के होने से इनकार किया.) एक और अजीब बात ये थी कि आंद्रे अपनी चिट्ठियों में दिनांक एक अप्रैल ही लिखते थे.

यहूदी परिवार में घडीसाज पिता के पुत्र आंद्रे अपने छोटे भाई के साथ एक ही कक्षा में पढते थे. कहते हैं आंद्रे के भाई ने जहाँ अच्छे अंक प्राप्त किये वहीँ आंद्रे अपनी कक्षा में आखिरी स्थान पर आये. पर फ़्रांसिसी गणितज्ञ अर्नेस्ट वेसीयट द्वारा लिए गए मौखिक परीक्षा के उन्हें २० में से १९ अंक प्राप्त हुए और उन्हें इकोल पोलीटेक्निक में नामांकन मिल गया. एक साल के भीतर ही प्रथम विश्वयुद्ध के चलते दोनों भाइयों  को पढाई छोड कर सेना में भर्ती होना पड़ा. कुल मिलकर यहीं तक पढाई की आंद्रे ने. इसके बाद के ३१ साल का शेष जीवन पागलखाने में गुजारते हुए उन्होंने गणित पर अद्भुत शोध किये. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कुछ समय तक फ़्रांस का वो हिस्सा नाजी जर्मनी के कब्जे में था और इस दौरान आंद्रे ने अपनी यहूदी पहचान छुपाने के लिए छद्म नामों से भी शोध छपवाए.

उनके पागलखाने तक पहुचने के कारणों पर भी मतभेद तो थे पर सभी मतभेदों में एक बात सामान थी और वो थी नृशंस हत्या !

कुछ लोगों का कहना था कि उन्होंने अपने मकान मालकिन और सास की हत्या इसलिए कर दी क्योंकि वो बहुत शोर करती थी और इससे उनके काम में बाधा पड़ती थी. कुछ ने ये कहा कि उन्होंने अपने भाई से ईर्ष्या के चलते उसकी हत्या कर दी. क्योंकि उनका भाई उस समय एक विद्यालय खोलने की योजना बना रहा था. कुछ ने  मंगेतर तो कुछ ने पत्नी की हत्या की बात की. कई लोगों ने धार्मिक बहस को इसका कारण माना.

कुछ किस्सों के अनुसार विश्वयुद्ध से लौटे फौजी अफसर होने के नाते उनकी इज्जत थी और इसी बात के चलते हत्यारा होने पर भी उन्हें मानसिक रोगी बताकर उन्हें अस्पताल में भर्ती करा दिया गया. २४ वर्ष की उम्र से लेकर १९४८ में मृत्यु तक वो मानसिक अस्पताल में ही रहे. हत्या की इस घटना के अलावा आंद्रे को एक शांत और मिलनसार व्यक्ति के रूप में जाना जाता था. लेकिन जो व्यक्ति हत्या कर दे… अपने ही परिवार के कई लोगों का उसका मिलनसार और विद्वान  होना किस काम का ? !

कई कल्पित कथाओं के बाद कुछ शोध, चिट्ठियों और आंद्रे के सबसे छोटे भाई की लिखी किताब में बातें थोड़ी अलग हैं. उस हिसाब से आंद्रे युद्ध में घायल हो जाने के कारण कुछ दिन अस्पताल में बिताने के बाद सेना के लिए अक्षम घोषित होने के बाद घर लौटे थे और उनके भाई के सर में गोली लग गयी थी जिससे उनकी एक आँख भी चली गयी थी. फिर एक दिन खाना खाते समय आंद्रे ने अपने भाई, चाचा और चाची की हत्या कर दी. इसके बाद वो चिल्लाते हुए बाहर निकल गए और अपने आपको पुलिस के हवाले कर दिया. जहाँ से उन्हें मानसिक अस्पताल भेज दिया गया.

फ्रेंच अकादमी ऑफ साइंस ने उन्हें १९४८ के बेक्वेरेल पुरस्कार के लिए चुना था जो उन्हें  उसी साल मरणोपरांत प्रदान किया गया. बिना किसी उच्च औपचारिक शिक्षा के आंद्रे ने गणित की कई शाखाओं पर शोध किया और कई गणितज्ञों के साथ शोधपत्र भी छपे. मुख्यधारा  और दुनिया से पूरी तरह अलग रहने के बावजूद सीमित किताबों और पत्रों के माध्यम से वो गणित के विकास पर काम करते रहे.

उस समय के अस्पताल के मुख्य मनोवैज्ञानिक बरुक ने बाद में बिना आंद्रे का नाम लिए ‘चार्लटन का गणितज्ञ’ नाम से छपे लेख में लिखा कि आंद्रे  ‘तर्कसंगत मानसिकता के रोगी’ थे. उनका तर्क था कि ये उनकी जिम्मेवारी थी कि परिवार के सुजनन (eugenic duty) के लिए उसकी एक शाखा को खत्म कर दिया जाय जो उनके हिसाब से दूषित थी. कई सालों के बाद अपने सबसे छोटे भाई से मिलने के बाद उन्होंने डॉक्टर को एक बार बताया कि ‘ये सब एक गणितीय तर्क पर आधारित है. मेरे परिवार में पहले मानसिक रोगी रहे हैं और उसे खत्म कर देने के लिए परिवार की एक शाखा को तर्क के हिसाब से खत्म हो जाना चाहिए. मैंने इसके लिए जो काम शुरू किया था वो अभी खत्म नहीं हुआ है’. उन्होंने डॉक्टर से ये भी कहा कि उनके तर्क में भावना का कोई स्थान नहीं और इसके लिए उन्होंने अलेक्जन्द्रिया की प्रसिद्ध गणितज्ञ हिपाटिया के सिद्धांतों का प्रयोग किया.

हिपाटिया पहली प्रसिद्द महिला गणितज्ञ के रूप में भी जानी जाती है. ईसाई कट्टरपंथियों ने ४१५ ई. में हिपाटिया की हत्या कर दी.  शिष्यों के लिखे कुछ लेखों और पत्रों के अलावा हिपाटिया का कोई दर्शन बचा नहीं है. और कोई भी ये अनुमान नहीं लगा पाया कि आंद्रे ने किस सिद्धांत की बात की होगी. वैसे काफी बाद में लिखे गए एक उपन्यास में एक अनुच्छेद मिला जिसमें यह लिखा गया था कि हिपाटिया ने एक नरसंहार पर  कहा की उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता जब तक कुछ अर्ध-जानवर जिस मिटटी से आये थे अगर उसी मिटटी में कुछ साल पहले चले जाएँ और उससे दुनिया का पुनर्निर्माण और एक महान व्यवस्थित समाज बने.

लोग ये नहीं मान पाते कि एक उपन्यासकार की ऐसी कल्पित बात से आंद्रे प्रभावित हुआ हो. ये बिडम्बना ही होगी कि एक गणितीय विद्वान जिसे इस हत्या को छोड़ दें तो बहुत ही शांत और दयालु इंसान के रूप  में देखा गया एक उपन्यास से इस तरह प्रभावित हो जाए. मानसिक अस्पताल के एक छोटी सी जगह में एक मेज पर काम करते रहने वाला आंद्रे अक्सर उस जगह को छोड़ अन्य जगहों पर भी जाने से मना कर देता. ‘गणित मेरे लिए पर्याप्त है’ कह कर टाल देने वाले आंद्रे के सबसे छोटे भाई की लिखी किताब के अनुसार वह बस अस्पताल में गणित के अलावा बस शतरंज खेलता और अत्यंत ही विनम्र किस्म का इंसान था जिसे अस्पताल के कर्मचारी एक आदर्श मरीज के रूप में देखते थे.

आंद्रे पत्रों में अपने पते के नाम पर बस मकान संख्या और गली का नाम दिया करता और ये कभी नहीं लिखता कि वो मकान नंबर वास्तव में एक मानसिक अस्पताल है. आंद्रे आजीवन कभी किसी गणितज्ञ से नहीं मिला. पारिवारिक, धार्मिक सुजनन के नाम पर कई नरसंहार हुए हैं. आंद्रे ने पता नहीं किस तर्क से परिवार वालों की हत्या कर दी. कोई भी तर्क मानव हत्या को उचित नहीं ठहरा सकता. वैसे ये एक रहस्य ही है कि ऐसा क्या था जिसने आंद्रे को ऐसा जघन्य अपराध करने को प्रेरित किया. मनोविज्ञान और गणितीय दर्शन दोनों के लिए अब भी ही ये एक रहस्य सा ही है.

~Abhishek Ojha~

१. Henri Cartan and Jacqueline Ferrand, The case of André Bloch

२. Douglas M. Campbell, Beauty and the beast: The strange case of andre bloch

Wednesday, February 23, 2011

अंको का विभाजन


अंको की अपनी दुनिया है. इनमें डूबने वाले खूब गोते लगाते हैं. ऐसे ही गोते लगाने वालों में एक थे 'को नहीं जानत है जग में'  की तर्ज पर प्रसिद्द गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन. इन्ट्यूशनिज्म के महारथी... ऐसे गणितज्ञ जो पता नहीं कैसे सोच कर ऐसी बातें लिखते जिन्हें समझना उस समय तो क्या अब भी मुश्किल है. ऐसे लोगों के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल होता है क्योंकि एक तो अपने छोटे जीवन में वे बहुत कुछ कह नहीं पाए फिर जो कुछ कहा भी उसमें से दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से बहुत कुछ खो गया… फिर जो कुछ मिला उसमें से कुछ बातें अपूर्ण ही मिल पायी... और फिर कुछ ऐसी भी मिली जिनका मतलब समझ पाना आसान नहीं. खैर इनके बारे में कभी पूरी श्रृंखला लिखने का मन है. फिलहाल उनके पहले पत्र से लेकर उनकी म्रत्यु के ५७ वर्षों के बाद ट्रिनिटी कॉलेज कैम्ब्रिज की लाइब्रेरी में मिले इनके कुछ नोट्स पर हुए शोध के बारे में. (जो बाद में दो अमेरिकी गणितज्ञों ने रामानुजन'स लोस्ट नोटबुक्स के नाम से प्रकाशित की, जिनमें से एक गणितज्ञ ने कहा था "The discovery of this Lost Notebook caused roughly as much stir in the mathematical world as the discovery of Beethoven’s tenth symphony would cause in the musical world." ).  इस सवाल के शोधकर्ता को इस साल का फील्ड्स मेडल मिलना लगभग तय सा है.

ये गणित के उन सवालों में से है जिन्हें समझने के लिए बस जोड़ और गिनती आना पर्याप्त है पर हल होने में सदियाँ गुजर गयी. अब देखिये न कितना आसान है: ३ = १+१+१ = २+१ = ३. वैसे ही ४ = ३+१ = २+२ = २+१+१ = १+१+१+१ = ४. साधारण सा जोड़... और अंको के विभाजित करने का तरीका. जैसे ३ को १ और २ से जोड़ कर बनाया जा सकता है या १,१ और १ से और ३ एक खुद. इस तरह ३ को विभाजित करने के ३ तरीके हुए वैसे ही ४ को विभाजित करने के पांच तरीके होंगे. अब सवाल ये है कि किसी अंक को कुल कितने तरीके से विभाजित किया जा सकता है? बहुत ही साधारण सा सवाल है.

लेकिन ३ और ४ के लिए तो ठीक पर ये अंक जैसे जैसे बढते हैं इनके विभाजन के तरीके बड़े अजब-गजब तरीके से तेजी से बढ़ते हैं. जैसे अगर १०० को विभाजित करना हो तो कुल १९०५६९२९२ तरीके हो जाते हैं. अब १००० को करना हो तो कितना बड़ा अंक आ जाएगा ये आप इस लिंक पर देख आयें. थोडा और बढ़ा दें तो पता चले कि ये कम्पूटर भी ना निकाल पाए ! अब सवाल ये था कि कैसे निकाला जाय कि किसी अंक को कुल कितने तरीके से विभाजित किया जा सकता है?

पहली कोशिश महान गणितज्ञ ओय्लर साहब ने की थी. ओय्लर साहब ने  जेनेरेटिंग फंक्शन और पावर सीरीज की मदद से सवाल को नए तरीके से लिखा. साधारण भाषा में कहने का मतलब ये कि वो कुछ ऐसा कह गए कि अगर दिल्ली से कलकत्ता की दुरी पता करना हो तो उसकी जगह अगर ये पता कर लें कि किस चाल से वहाँ  पहुचने में कितना समय लगता है तो भी दूरी निकाली जा सकती है. पर दिल्ली से कलकत्ता जाए कैसे? ये किसी को अभी भी पता नहीं था. कहने का मतलब ये कि सवाल अभी भी हल नहीं हो पाया !

१९१३ तक इस सवाल की किसी को हवा तक नहीं लग पायी. फिर १९१३ में मद्रास के एक बालक ने इंग्लैण्ड के हार्डी को जो पत्र लिखा उसमें एक फोर्मुला था. जो गलत होते हुए भी इस सवाल का अब तक का सबसे महत्तवपूर्ण सुझाव साबित हुआ. और फिर बाद में रामानुजन ने एक फोर्मुला दिया और हार्डी ने मिलकर साबित किया. मेजर मैकमोहन ने किया जोड़ घटाव का काम (मेजर साब के बारे में फिर कभी). यह कालजयी सूत्र गणित में एक चमत्कार सा था. यह सही सही तो नहीं पर बहुत सटीक अनुमान देता था सवाल के उत्तर का कितने भी बड़े अंक के लिए.

उनेक बाद सवाल लगभग वहीँ का वहीँ पड़ा रहा. १९३७ में उनके नोट्स का इस्तेमाल कर हान्स रादेमचेर ने एक सूत्र बनाया पर वो भी अनंत अंको को जोडने वाला कठिन सूत्र था. फिर एमरी विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर केन ओनो और उनके सहयोगियों ने पिछले महीने इस सवाल को हल कर लेने की घोषणा की. प्रोफ़ेसर ओनो कहते हैं कि ओय्लर ने जो दिया उससे  गणित के ब्रह्माण्ड में बस मंगल ग्रह तक को देख पाने की सी बात थी. उससे १५० सालों में २०० से बड़े अंको का विभाजन नहीं किया जा सका. फिर रामानुजन ने गणितज्ञों को टेलीस्कोप दे दिया... जिसमें दूर के ग्रहों और तारों को देखने की क्षमता थी.

रामानुजन की डायरी में एक लाइन थी जिसमें उन्होंने लिखा था "there appear to be corresponding properties in which the moduli are powers of 5, 7, or 11... and no simple properties for any moduli involving primes other than these three."  पर इसकी व्याख्या कर पाने के पहले ही ३२ वर्ष की उम्र में रामानुजन चल बसे.

कंप्यूटर और नए गणितीय खोजों के बावजूद रामानुजन के नोट्स गणितज्ञों के लिए विस्मय का कारण बने रहे और वो उस लाइन का मतलब ढूंढते रहे. फिर केन ओनो की टीम को पता लगा कि रामानुजन के टेलीस्कोप से जितना दिख रहा था उसके आगे ब्रह्माण्ड में देखने की जरुरत नहीं. क्योंकि उसके बाद यही fractalदुनिया फिर से अपने को दुहरा रही है. उन्होंने अंको के विभाजन में फ्रैक्टल का सिद्धांत पाया. ओनो कहते हैं कि रामानुजन का no simple properties फ्रैक्टल ही हैं. इस तरह पिछले महीने ये सवाल हल हो गया. फ्रैक्टल अपने आप को अनंत तक दुहराने वाले पैटर्न होते हैं और केन ओनो की टीम ने अंको के विभाजन में यही पैटर्न ढूंढ निकाला है. जिसकी मदद से उन्होंने एक बीजगणितीय सूत्र निकाला है अंको के विभाजन को निकलने के लिए.

चलते-चलते*: बताता चलूँ कि रामानुजन के बारे में हम जितना सुनते-जानते हैं उससे कहीं ज्यादा महान गणितज्ञ थे. इतिहास में एक बार पैदा होने वाले एक महर्षि की तरह. उनके बारे में ३ महीने पहले (उनके जन्मदिन पर) जोर्ज ऐंड्रूस का लिखा लेख है: The meaning of Ramanujan: Now and for the future. जो कुछ यूँ शुरू होता है:  In this paper we pay homage to this towering figure whose mathematical discoveries so affected mathematics throughout the twentieth century and into the twenty first. Whenever we remember Ramanujan, three things come most vividly to mind: (1) Ramanujan was a truly great mathematician; (2) Ramanujan's life story is inspiring; and (3) Ramanujan's life and work give credible support to our belief in the Universality of truth. We shall examine each of these topics in the next three sections. A careful examination of each topic should, at least, give us some inkling of the meaning of Ramanujan. (ऐंड्रूस को रामानुजन के नोट्स को ढूंढने का श्रेय जाता है. आजीवन वो रामानुजन के नोट्स पर काम करते रहे हैं.)

और दो महीने पहले ही खुद केन ओनो द्वारा अमेरिकन मैथेमेटिकल सोसाइटी में छपा ये आलेख: The last words of a genius. और अगर पढ़ सकें तो अपने भारत के इस अद्भुत गणितज्ञ के बारे में ये किताब जरूर पढियेगा. संघर्ष, बिडम्बना और प्रतिभा का अद्भुत संगम: The Man Who Knew Infinity: A Life of the Genius Ramanujan.

*अगर आपने यहाँ तक पढ़ा है तो बता दूं कि चलते-चलते के बाद के जो लिंक हैं वो पढ़ने की कोशिश कीजियेगा. जहाँ गणित दिखे उसे छोड़कर अंग्रेजी वाले पैराग्राफ ही सही. अच्छा लगेगा, इसकी गारंटी Smile वैसे रामानुजन पर कभी फुर्सत में ढेर सारे पोस्ट लिखने का मन है.

~Abhishek Ojha~

तस्वीर: गणितीय सूत्र से बना फ्रैक्टल. इसे मैंने कभी गणितीय रंगोली नाम देकर इसी ब्लॉग के लिए बनाया था, उस पोस्ट पर कुछ और भी हैं. खूबसूरत लगे तो देख आइये. इसे देखने में क्या लजाना? वैसे भी गणितीय है Smile

Sunday, February 13, 2011

अंकों के देश में !

गणित का मतलब हम अक्सर अंको से ही लगाते हैं. गणित माने जोड़, घटाव, गुणा और भाग. हमें लगता है बस यही है गणित. पर ये गणित तो बस अंको का गणित है. गणित तो बिन अंको के भी होता है। ... चलिये इसे हम अंकगणित कहते हैं. पर वास्तव  में अंको का गणित भी इन अंकों तक ही नहीं है. संख्या सिद्धांत या नंबर  थियोरी अंकगणित से  कहीं अधिक विस्तृत होता है और इसमें अंको के गुण और उससे जुड़े नियम होते हैं. कुछ दिनों पहले मैथफेल नामक ब्लॉग पर आई ये तस्वीर मुझे बहुत पसंद आई थी. आज चलते हैं अंकों के देश में. पर जैसा कि ये तस्वीर कहती है अंकगणित गणित नहीं है ! Arithmetic-Mathematics

वैसे गणित की सीधी सी परिभाषा तो ये हैं कि जो आसानी से समझ में आ जाए वो गणित नहीं हैSmile  जैसे अंको तक का गणित आसानी समझ में आ जाता है तो गणितज्ञ उसे गणित ही नहीं मानते. अंको के लिए उन्होंने संख्या सिद्धांत बनाया. वैसे ही पिछली पोस्टों में जब गणित की खूबसूरती पर चर्चा चली थी तो मैंने लिखा था कि गणितज्ञ गणित के उन सिद्धांतों को गणित ही नहीं मानते जिनका उपयोग होने लगता है असली गणित को तो वो साश्वत सत्य की खोज और कविता सा मानते हैं. अब ये अलग बात है कि कहने वाले उसे ये कहते हैं कि अँधेरे कमरे में बैठ कर काली बिल्ली ढूंढने के सामान है ये गणित.... और मजे की बात है कि वो बिल्ली उस कमरे में  होती नहीं ! पर ये तो हुई मजाक की बात. संख्या के सिद्धांत में अंको के नियम और नियमों से अंक बनाए जाते हैं. नहीं-नहीं मैंने गलत टाइप नहीं किया नियमों से अंक भी बनाए जाते हैं. अब एक नए तरह के अंकों की एक नयी ही दुनिया होती है. उसके अपने नियम होते हैं और उनको आपस में जोडने घटाने और गुणा भाग करने के नियम भी नए होते हैं.

अंको से हमारे दिमाग में जो सबसे पहले अंक आते हैं उन्हें पूर्ण अंक (...३,-२,-१,०,१,२,३,...) कहते हैं या प्राकृतिक संख्याएं (१,२,३...) सम, विषम, रूढ़ इत्यादि अंको के कुछ मौलिक गुणों के आधार पर अंको का वर्गिकरण होता है। जैसे जो संख्या 2 से विभाजित हो वो सम संख्या जो न हो वो विषम, जो किसी से भी विभाजित ना हो वो रूढ़। ये सभी गिनती वाले अंक हैं अब ये एक बड़े परिवार का हिस्सा हैं जिन्हे परिमेय अंक (रेशनल) कहते हैं।  जैसे १/४,२/३,५/१ इत्यादि. अब आपने बट्टा या भिन्न के सवाल पढे होंगे। इनके अपने नियम हैं... अब इन परिमेय अंको के पड़ोसी अंक होते हैं अपरिमेय अंक। बहुत करीबी पड़ोसी… एक दूसरे के आजू-बाजू रहने वाले लेकिन दोनों के गुण आपस में नहीं मिलते। इनकी समस्या ये है कि इन्हें भिन्न या बट्टे में नहीं लिखा जा सकता। अब कितने भी करीबी पड़ोसी हों ये भिन्न नहीं होंगे तो अभिन्न कहना ही पड़ेगा। तो इस तरह बने परिमेय के पड़ोसी अपरिमेय !

ये सारे परिमेय और कुछ अपरिमेय जिस मुहल्ले में रहते हैं उसका नाम हुआ बीजगणितीय मुहल्ला. विभाजन के बाद कुछ अपरिमेयों ने परिमेयों के साथ रहने का फैसला किया होगा Smile तो इन सबको एकसाथ बीजगणितीय अंक कहते हैं। बीजगणितीय मुहल्ले वालों का एक गुण ये होता है कि वे सभी एक खास तरह के समीकरण के हल (मूल) होते हैं। अब जो ऐसे समीकरणों के हल नहीं हो पाते वो बाजू के मुहल्ले में रहते हैं और उन्हें इस जटिल मुहल्ले वालों को ट्रैन्सन्डेन्टल अंक कहते हैं। बीजगणितीय और जटिल अंकों को मिलकर वास्तविक अंक नामक जिला बनता है।

अब आप कहेंगे सारे नंबर तो हो गए जिले तक ही। पर असली अंक तो अब चालू होते हैं ! इन जिलों के मण्डल को अतिवास्तविक या हाइपररियल अंक कहते हैं। इनके गुण का तो वही सिद्धान्त है कि जो किसी राज्य के निवासी का होता है वो पहले देशवासी है। पहले भारतीय फिर बिहार, बंगाल। तो उसी तरह जो अतिवास्तविक के गुण है वो वास्तविक के होंगे ही।  इसके बाद आते हैं समिश्रित अंक याने काम्प्लेक्स अंक। वास्तविक और काल्पनिक अंको के जिलों को मिलकर बना समिश्र प्रांत। काल्पनिक अंक माने आई लगे अंक। जैसे 1+2आई. आई का मतलब होता है ऋणात्मक अंक का वर्गमूल... वही वाला वर्गमूल जिसके बारे में हम बचपन में पढ़ते हैं कि केवल धनात्मक अंको का ही वर्गमूल होता है। यहाँ भी चकमा दे गए न गणितज्ञ पढ़ा दिया कि धनात्मक अंको का वर्गमूल होता है और फिर पता चला कि ऋणात्मक का भी वर्गमूल होता है ! तो भैया इसका मतलब ये है कि गणित देश के छपरा से आगे ही नहीं जाएँगे तो पता कैसे चलेगा कि लखनऊ भी कोई जगह है ? दिल्ली, लंदन तो अभी दूर है ही।

अब इन मिश्रित संख्याओं के प्रांत को बढ़ा दें तो बृहतसमिश्रित प्रांत का नाम हुआ क्वाटरनायन। अब इस बृहत क्षेत्र में रहने वाले अंको की एक मजेदार आदत होती है कि एक को दूसरे से गुणा कर दो तो वही नहीं आता जो दूसरे को पहले से गुणा करने पर आता है। यानि यहाँ 2X3 अगर 6 होता है तो 3X2 कुछ और होगा ! अब अलग-अलग जगह के लोगों के अपने अपने तरीके हैं। वैसे ही इन अंको के अभी अपने नखरे हैं. ये समिश्रित अंको का एक तरह से 2 डायमेशन से तीन डायमेंशन में विस्तार है।

इस बृहत् प्रान्त के बाहर आते हैं ओक्टोनायन. इनके रंग, गुण और नखरे तो और भी अजीब होते हैं। यहाँ भी दो का आपसी गुणा आगे की जगह पीछे से कर देने पर अलग हो जाता है तो तीन अंक लेकर अगर पहले दो को गुणा करने के बाद तीसरे से गुणा किया जाय तो वही नहीं आता जो पहले आखिरी दो को गुणा करने के बाद पहले से गुणा करें ! आप ये कहें कि ओझवा बौरा गया है और अब गुणा भाग भी भूल गया. इसके पहले मैं ये सैर बंद कर देता हूँ Open-mouthed smile  फिर चलेंगे कभी अभी आप हवा खा के आइये.

~Abhishek Ojha~

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ये ब्लॉग बंद सा हो गया था. धन्यवाद अनूपजी का जो उन्होंने आज याद  और हमने एक पोस्ट ठेल  दी. आपने झेला हो तो मेरे साथ उन्हें भी कोस लीजियेगा और जो धन्यवाद देना हो तो मुझे दे जाएँ. झूठा ही सही Smile