प्रेम और दुःख का गहरा नाता है. जहाँ एक आ जाय दूसरा आ ही जाता है. और इस प्रेम में भी दुःख आया... महिला होने का अभिशाप भी. आप क्या सोच रहे हैं की जरूर भारत की कहानी होगी ! लेकिन ऐसा नहीं है... ये बात है फ्रांस की.
सोफी जर्मैन फ्रांस की एक महिला गणितज्ञ थी. पर दुर्भाग्य से उनका जन्म तब हुआ था (सत्रहवी शताब्दी) जब महिलाओं को यूरोप में समान अधिकार नहीं थे. बाकी सब तो ठीक लेकिन गणित पढ़ना औरतों के लिए खासकर बुरा माना जाता था. इसे पुरुषों का काम समझा जाता था. शायद यही कारण है की महिला गणितज्ञों की इतनी कमी रही है इतिहास में.
सोफी का जन्म एक अच्छे घराने में हुआ था और बचपन में वो अपने पिता के पुस्तकालय में बैठ कर पढा करती. इसी दौरान उन्हें एक किस्सा पढने को मिला. कहते हैं की आर्कीमिडिज (Archimedes) को एक सिपाही ने उस समय मार दिया जब वो ज्यामिति की कुछ संरचनाओं में लीन थे और उन्होंने सिपाही के सवालों का उत्तर देने की जरुरत नहीं समझी. शहर पर हमला हुआ था और वो गणित में लीन थे. इस किस्से से सोफी सोच में पड़ गई की जब कोई इस विषय में इस तरह तल्लीन हो सकता है तो जरूर इसमें कोई बात होगी. और उन्होंने गणित पढ़ना चालु किया. पर समस्या तब आई जब परिवार वालों को पता चला, परिवार वालों की पूरी कोशिश रही की ये गणित न पढ़े. तब के जमाने में यूरोप में ये काम लड़कियों के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं समझा जाता था. तब लड़कियों को विश्वविद्यालयों में भी प्रवेश नहीं दिया जाता था. ख़ुद से पढ़ के भी क्या करती?
उनका गणित से प्रेम का ये आलम था की सोफी छुप कर घर के ऐसी जगहों पर गणित पढ़ा करती जहाँ कोई नहीं जाता. मोमबत्ती जला कर... फ्रांस में पड़ने वाली कड़ाके की ठंढ में भी वो जब घर के लोग सो जाते तो गणित पढ़ा करती. अपने प्यार के लिए तकलीफ सहती रही. घर वालों ने बाद में हार मान ली और परेशान करना छोड़ दिया. पर ये प्यार उन्हें इतनी आसानी से नहीं मिलने वाला था. गणित ख़ुद से पढ़ती तो ये कुछ पता नहीं होता की जो कर रही हैं सही है या ग़लत. ये भी नहीं पता होता था की जिन चीज़ों पर काम कर रही है कहीं वो पहले ही तो नहीं खोज लिए गए! ठीक उसी तरह जैसे रामानुजन, हार्डी से मिलने के पहले किया करते थे. कितना ही गणित वो ख़ुद लिख गए जिसकी खोज उस समय तक की जा चुकी थी. (रामानुजन की कहानी की तो श्रृंखला बन ही जायेगी, अभी उन पर एक और किताब पढ़ रहा हूँ. वो भी ख़त्म हो जाय तो लिखता हूँ). बिना औपचारिक शिक्षा के उन्हें कुछ पता ही नहीं था.
पर जहाँ चाह वहाँ राह ! उन्होंने एक नया तरीका निकाला... सेक्सपियर के ट्वेलव्थ नाईट की तरह उन्होंने एक ऐसे लड़के का छद्म नाम ले लिया जो पढ़ाई छोड़ चुका था, और वो उसके नाम से प्रश्न पत्रों का हल जमा कर देती. महान गणितज्ञ लैग्रंजे (Lagrange) ने जब उत्तरों को देखा तो उन्होंने सोफी को मिलने बुला भेजा और सोफी को अपना राज खोलना पडा. लैग्रंजे ने सोफी की तारीफ तो की पर फिर भी नियम के हिसाब से वो विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं ले सकती थी. इसी बीच सोफी एक और महान गणितज्ञ गॉस (Gauss) को अपने काम भेजती और गॉस पत्रों में जवाब दिया करते. यहाँ भी वो अपने छद्म नाम का ही इस्तेमाल करती. इस तरह कुछ दिनों तक चला पर ये बात भी ज्यादा दिनों तक नहीं चली. नेपोलियन ने गॉस के शहर प्रसिया (Prussia) पर हमला किया तो सोफी को बचपन वाली कहानी याद आ गई और उन्हें लगा कि कहीं आर्कीमिडिज वाली घटना गॉस के साथ भी न हो जाय. इसलिए उन्होंने अपनी एक सहेली को गॉस का ख़ास ध्यान रखने को कहा, उस सहेली ने गॉस को सब कुछ बता दिया. गॉस को बहुत आश्चर्य हुआ... की एक महिला भी गणित पर इतना अच्छा काम कर सकती है ! और उन्होंने सोफी को जो पत्र लिखा उसमें उनकी खूब प्रशंसा की. पर इस घटना के चंद दिनों बाद ही गॉस गोटिन्गेन विश्विद्यालय में खगोल शास्त्र के प्रोफेसर बन गए और गणित पर काम करना कम कर दिया और इसके साथ ही पत्र व्यवहार भी बंद हो गया.
पर समय के साथ सोफी का गणित प्रेम और संघर्ष जारी रहा... वो फ्रेंच गणित अकादमी में अपने काम को भेजती तो... काम उच्च कोटि का होते हुए भी उसमें कई छोटी-छोटी गलतियाँ होती. ऐसा अक्सर गणित में होता है पर अगर साथ में काम करने वाले होते हैं तो चर्चा और सुझाव से ये गलतियाँ हटाई जाती हैं. पर उन्हें मदद करने वाला कोई न था. फिर भी अंततः एक ऐसा समय आया जब वो अकादमी की बैठक में जाने वाली पहली ऐसी महिला बनीं जो किसी गणितज्ञ की पत्नी नहीं थी. इन सबके साथ गॉस ने उन्हें मानद डिग्री देने की सिफारिस भी की... उन्हें ये दी जाने वाली थी पर उसके पहले ही वो दुनिया छोड़ चली.
आज वो पहली महिला गणितज्ञ के रूप में जानी जाती हैं जिसने अच्छे और उपयोगी प्रमेयों की खोज की. सोफी लिखित कुछ दस्तावेजों से ये भी बात सामने आई की फ़र्मैट के प्रमेय पर उनकी सोच सही दिशा में थी. जहाँ उस समय के सारे गणितज्ञ किसी एक ख़ास अंक के लिए प्रमेय को साबित करने की कोशिश करते वहीँ सोफी ने एक विस्तृत सोच से शुरुआत की और कई सारे सिद्धांतों की मदद से पूरा प्रमेय एक साथ हल करने की कोशिश की. पर दुर्भाग्य न औपचारिक शिक्षा मिल पायी ना ही किसी गणितज्ञ का सहयोग... इतिहास के पन्नों में ऐसी कितनी ही प्रतिभाएं दफ़न हो गयीं... कारण बस यही था की वो महिला थी. नहीं तो आज उनका नाम कहीं और होता.... और पहली महिला गणितज्ञ होने के खिताब के साथ-साथ मुख्य धारा के महान गणितज्ञों में भी उनकी गिनती होती.
~Abhishek Ojha~
चित्र साभार: http://www.agnesscott.edu/lriddle/women/germain.htm
Thursday, July 31, 2008
Tuesday, July 29, 2008
एंड्र्यू वाइल्स, फील्ड्स मेडल और एक महिला गणितज्ञ (बातें गणित की... भाग X)
पिछले पोस्ट में हमने देखा की किस तरह एंड्र्यू वाइल्स ने सात सालों की कठिन मेहनत के बाद एक बड़ा सा हल निकाला. ये उस सवाल का हल था जिसे हल करने की कोशिश अब तक के सबसे महान गणितज्ञ कर चुके थे. एंड्र्यू वाइल्स ने कितनी मेहनत की थी इसका अंदाजा तो आप पिछले पोस्ट पर उनकी तस्वीर देखकर ही लगा सकते हैं. एंड्र्यू वाइल्स ने गणित का महानतम सवाल हल किया और एक सवाल के हल ने उन्हें महान गणितज्ञों की श्रेणी में ला खड़ा किया. पर गॉस, ओय्लर जैसे गणितज्ञ क्या इनसे कमजोर थे? ऐसे सवाल तो उठने ही नहीं चाहिए पर लोग उठाते हैं. और मेरे जैसे जो गॉस की विद्वता के घोर प्रसंशक हैं वो यही कहते हैं कि न तो गॉस ने सात साल तक इस सवाल पर काम किया और ना ही तब गणित इतना विकसित था. हाँ ये बात और है की अगर गॉस ने ७ सालों तक इस सवाल पर काम कर दिया होता तो आज नंबर थियोरी की कई शाखाएं होती. गॉस की विद्वता तो आगे कई पोस्ट में आएगी ही. पर एंड्र्यू वाइल्स की विद्वता भी अतुलनीय है और ऐसे विवाद सही में कोई मायने नहीं रखते. एंड्र्यू वाइल्स अपने गणित के अनुभव के बारे में कहते हैं:
हर चार साल पर दिया जाने वाला फील्ड्स मेडल गणित के क्षेत्र का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है. तो फिर एंड्र्यू वाइल्स को निर्विवाद रूप से मिल जाना चाहिए. पर फील्ड्स मेडल में एक शर्त होती है की पुरस्कार मिलने वाले साल तक गणितज्ञ की आयु ४० से ज्यादा नहीं होनी चाहिए ! एंड्र्यू वाइल्स का जन्म १९५३ में हुआ था और उस हिसाब से १९९४ में वो एक साल ज्यादा के हो गए थे. नियम तो फिर नियम ही है तो उन्हें ये पुरस्कार नहीं दिया गया*. पर फील्ड्स मेडल की समिति ने उन्हें पुरस्कृत करना ही उचित समझा और १९९८ में उन्हें अलग से एक विशेष रजत-फलक दिया गया. फील्ड्स मेडल पर महान गणितज्ञ आर्कीमिडिस की तस्वीर होती है. ४० साल से कम क्यों? इसकी एक आम धारणा ये है की गणितज्ञ अपनी मौलिक सोच (Original ideas) ४० के पहले ही सोचते हैं इसके बाद वो गणित पर बस काम करते हैं खोज तो कम उम्र में ही होती है. इस चालीस साल की बात से याद आया जी एच हार्डी की ये बात जो उन्होंने अपनी पुस्तक 'A Mathematician's Apology' में लिखी है.**
कई गणितज्ञों ने फ़र्मैट के अन्तिम प्रमेय पर काम किया ये तो हम देख ही चुके है पर अगर इस महिला गणितज्ञ की चर्चा न हो तो शायद श्रृंखला अधूरी रह जाय. पोस्ट लम्बी हो रही है इसलिए आगे नहीं लिखूंगा बस इतना बताता चलूँ की इस महान गणितज्ञ को महिला होने का खामियाजा भुगतना पड़ा. नहीं तो आज इतिहास में कहीं और ज्यादा नाम होता... फ़र्मैट के अन्तिम प्रमेय पर सही तरीके से सोचने वाले बहुत कम लोगों में वो एक थी. उस संघर्ष, दुःख और गणित से प्यार की कहानी अगले पोस्ट में.
चित्र: साभार, विकिपीडिया
*ऐसे पुरस्कारों के साथ ऐसी कहानियाँ तो होती ही है... शायद नोबेल पुरस्कार की सबसे बड़ी कमी हमेशा के लिए ये रह जाय की गांधीजी को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला. गांधीजी ऐसे किसी पुरस्कार के मोहताज तो न थे... पर ये मलाल शायद नोबेल समिति को रहे. इस बारे में अगर रूचि हो तो नोबेल पुरस्कार की आधिकारिक वेबसाइट पर इस लिंक पर पढ़ आए.
**पुस्तक की सॉफ्ट कॉपी पास में होने का यह एक बहुत बड़ा फायदा है... जब जिस पैराग्राफ की जरुरत हो खोल के सर्च कर लो.
अगर मुझे गणित पर अपने अनुभव के वर्णन करने को कहा जाय तो शायद मैं कहूं की यह एक अंधेरे कमरे में प्रवेश करने की तरह है, पहला कमरा... अंधकारमय, बिल्कुल अंधकारमय. इधर-उधर भटकना, उछलना और फिर धीरे-धीरे पता चलने लगता है की कहाँ कौन सा फर्नीचर है. और फिर अंततः ६ महीने या ऐसे ही कुछ समय पश्चात पता चलता है की स्विच किधर है, उसे दबा देना और फिर सबकुछ जगमगा उठता है... तब सब कुछ दिखने लगता है और ये पता चलता है कि मैं कहाँ हूँ ! -- एंड्र्यू वाइल्स बीबीसी की एक डॉक्युमेंट्री के प्रारम्भ में.
हर चार साल पर दिया जाने वाला फील्ड्स मेडल गणित के क्षेत्र का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है. तो फिर एंड्र्यू वाइल्स को निर्विवाद रूप से मिल जाना चाहिए. पर फील्ड्स मेडल में एक शर्त होती है की पुरस्कार मिलने वाले साल तक गणितज्ञ की आयु ४० से ज्यादा नहीं होनी चाहिए ! एंड्र्यू वाइल्स का जन्म १९५३ में हुआ था और उस हिसाब से १९९४ में वो एक साल ज्यादा के हो गए थे. नियम तो फिर नियम ही है तो उन्हें ये पुरस्कार नहीं दिया गया*. पर फील्ड्स मेडल की समिति ने उन्हें पुरस्कृत करना ही उचित समझा और १९९८ में उन्हें अलग से एक विशेष रजत-फलक दिया गया. फील्ड्स मेडल पर महान गणितज्ञ आर्कीमिडिस की तस्वीर होती है. ४० साल से कम क्यों? इसकी एक आम धारणा ये है की गणितज्ञ अपनी मौलिक सोच (Original ideas) ४० के पहले ही सोचते हैं इसके बाद वो गणित पर बस काम करते हैं खोज तो कम उम्र में ही होती है. इस चालीस साल की बात से याद आया जी एच हार्डी की ये बात जो उन्होंने अपनी पुस्तक 'A Mathematician's Apology' में लिखी है.**
"किसी भी गणितज्ञ को ये नहीं भूलना चाहिए की गणित युवा लोगों का खेल है. इसका सबसे आसान उदहारण यही है की रोयल सोसाइटी में गणितज्ञों की औसत उम्र सबसे कम है. और भी कई उदहारण लिए जा सकते हैं न्यूटन ने ५० की उम्र में गणित छोड़ दिया. वे मानते थे की ४० वर्ष की उम्र के साथ ही उनकी मौलिक रचनात्मकता के महानतम दिन ख़त्म हो गए...
...गैल्वास की मृत्यु २१ साल की उम्र में हो गई. रामानुजन ३३ में और रीमान ४० की उम्र में चल बसे. कुछ लोगों ने इस उम्र के बाद भी काम किया है जैसे की गॉस ने डिफेरेंसिअल जियोमेट्री तब लिखी जब वो ५० साल के थे, लेकिन इसका विचार उन्हें १० साल पहले ही आ गया था. मेरी नज़र में कोई बड़ी गणितीय खोज ४० की उम्र के बाद किसी ने नहीं की. और अगर किसी की इस उम्र के बाद गणित गणित में रूचि कम हो जाती है तो इससे न तो उसकी न गणित की ही कोई क्षति होने वाली है." --जी एच हार्डी
कई गणितज्ञों ने फ़र्मैट के अन्तिम प्रमेय पर काम किया ये तो हम देख ही चुके है पर अगर इस महिला गणितज्ञ की चर्चा न हो तो शायद श्रृंखला अधूरी रह जाय. पोस्ट लम्बी हो रही है इसलिए आगे नहीं लिखूंगा बस इतना बताता चलूँ की इस महान गणितज्ञ को महिला होने का खामियाजा भुगतना पड़ा. नहीं तो आज इतिहास में कहीं और ज्यादा नाम होता... फ़र्मैट के अन्तिम प्रमेय पर सही तरीके से सोचने वाले बहुत कम लोगों में वो एक थी. उस संघर्ष, दुःख और गणित से प्यार की कहानी अगले पोस्ट में.
चित्र: साभार, विकिपीडिया
*ऐसे पुरस्कारों के साथ ऐसी कहानियाँ तो होती ही है... शायद नोबेल पुरस्कार की सबसे बड़ी कमी हमेशा के लिए ये रह जाय की गांधीजी को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला. गांधीजी ऐसे किसी पुरस्कार के मोहताज तो न थे... पर ये मलाल शायद नोबेल समिति को रहे. इस बारे में अगर रूचि हो तो नोबेल पुरस्कार की आधिकारिक वेबसाइट पर इस लिंक पर पढ़ आए.
**पुस्तक की सॉफ्ट कॉपी पास में होने का यह एक बहुत बड़ा फायदा है... जब जिस पैराग्राफ की जरुरत हो खोल के सर्च कर लो.
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Friday, July 25, 2008
सात साल में बना १००० पन्नों का हल (बातें गणित की... भाग IX)
पिछले पोस्ट में हमने देखा की किस तरह अनसुलझे सवालों का पिटारा तैयार हो गया और सारे अनसुलझे सवाल एक-दुसरे से जुड़े हुए थे. इस बीच विशेषज्ञों ने सलाह दी की पानी सर के ऊपर से जा रहा है और बेहतर होगा की अब नंबर थियोरी से ऊपर उठकर सोचा जाय. और लोग नए जोश से इस सवाल को हल करने में लग गए. अब एक और गणितज्ञ का परिचय हो जाय. एंड्र्यू वाइल्स (Andrew Wiles) कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से गणित पढ़कर प्रिन्सटन पहुच गए पढाने, अभी भी वहीँ पढाते हैं...
इस दौरान एक सवाल हल हो गया. बर्कली स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के केन रिबेट (Ken Ribet) ने जीन पिएरे के एप्सिलोन अनुभाग (Epsilon Conjecture) को साबित कर दिया. ये ख़बर सुनकर एंड्र्यू वाइल्स ने तानिमाया अनुभाग हल करने की ठान ली... क्योंकि अगर ये हो गया तो फिर फ़र्मैट का अन्तिम प्रमेय भी हो गया. और फिर सात सालों तक सारे शोध कार्य छोड़कर एकांत में... वो काम करते रहे... केवल एक सवाल पर... गणित के महानतम सवाल पर. कुछ रिसर्च पेपर से, पर ज्यादातर ख़ुद के दिमाग से... वो काम करते रहे. कहते हैं की २ साल तक वो सवाल में अपने आपको डुबाये रहे ताकि एक स्ट्रेटजी सोच सकें.
तानियामा के अनुसार इलिप्टिक कर्व और मोडुलर फोर्म्स दोनों सेट एक ही हैं... यानी हर एक सदस्य के लिए दुसरे में वैसा ही सदस्य मौजूद है... पर समस्या ये की दोनों सेट में अनंत सदस्य ! गिनें तो कैसे गिनें? उन्होंने सहायता ली गैल्वास (Galois) के सिद्धांतों की. (गैल्वास की मजेदार के साथ-साथ दुखद कहानी जल्दी ही किसी पोस्ट में). गैल्वास के सिद्धांत ने कमाल किया और अब समस्या रह गई गैल्वास के सिद्धांत से मोडुलर फॉर्म के तुलना की. तीन साल में इतना हो पाया और ये बात कोई नहीं जानता था सिवाय एंड्र्यू की पत्नी के! इसके बाद कई सारे शोध और कईयों की थियोरी का इस्तेमाल किया एंड्र्यू ने. वो ये बातें किसी को नहीं बताते दो कारण थे एक ये की वो अपना ध्यान नहीं भंग करना चाहते थे और दूसरा ये... कौन कहे की आज के जमाने में भी लोग फ़र्मैट के अन्तिम प्रमेय पर काम करते हैं :-) वो ये बातें पत्नी के अलावा केवल अपने मित्र निक कट्ज़ (Nick Katz) को बताते थे.
और फिर १९९३ में न्यूटन इंस्टीच्युट ऑफ़ मैथेमेटिकल साइंसेस, कैम्ब्रिज में अपने गाइड द्बारा आयोजित कांफ्रेंस में उन्होंने व्याख्यान दिया 'इलिप्टिक कर्व, मोडुलर फॉर्म और गैल्वास रेप्रेसेंटेशन' पर. व्याख्यान में कई नए विचार प्रस्तुत किए गए पर न तो व्याख्यान के शीर्षक में न ही व्याख्यान में फ़र्मैट की चर्चा थी. जब व्याख्यान देते-देते वो अंत तक पहुचे तो सुनाने वालों के चहरे गंभीर हो गए थे... सबको लग गया था की अब कुछ बड़ा होने वाला है और फिर उन्होंने लिख दिया 'फ़र्मैट के अन्तिम प्रमेय का कथन' और लिख दिया हेंस प्रूव्ड !
और अगले दिन हर अखबार में ये ख़बर आई की अंततः प्रमेय सिद्ध हो गया !
एक कमिटी बनी लंबे चौडे हल की जांच के लिए और फिर निकली एक गलती... [गणित के प्रूफ़ में गलती होना तो आम बात है... उनकी तो हो गई. हम तो जान बुझ के कर दिया करते थे... जब प्रूफ़ नहीं आ रहा हो तो एक तरफ़ से बढ़ते-बढ़ते कहीं तक गए, दूसरी तरफ से चले तो कहीं और. फिर बीच में एक लाइन ऐसी होती थी जहाँ दोनों को बराबर दिखा देते :-) पर आईआईटी के प्रोफेसर कभी नंबर नहीं दिए... उत्तर पुस्तिका में जब How? Why? और So What? How Come? जैसी टिपण्णी लिखी मिल जाती तो चुप-चाप उत्तर पुस्तिका को मोड़ के रख लेते :(] इधर फिर वापस एंड्र्यू को लगना पड़ा सवाल पर... पर इस बार मामला इतना आसान नहीं था, पहले वो बिना किसी को बताये इस सवाल पर शान्ति से काम करते पर अब सबकी नज़रें इस पर लगी हुई थी... (गनीमत है 'आज तक' जैसे चैनल न थे अमेरिका में तब, नहीं तो बेचारे कुछ ना कर पाते). ध्यान नहीं लग पा रहा था और पहली बार एंड्र्यू ने किसी की मदद ली और उन्होंने अपने पूर्व छात्र टेलर को बुला भेजा. एक साल तक कोई सफलता हाथ नहीं लगी... और फिर एक दिन, उन्हें समस्या दिख गई और उन्होंने उसे निपटा दिया. और फिर फ़र्मैट का अन्तिम प्रमेय पूरी तरह से हल हो गया.
पूरा हल १००० हजार पन्नो का हुआ... जो व्याख्यान 'न्यूटन इंस्टीच्युट ऑफ़ मैथेमेटिकल साइंसेस' में उन्होंने दिया था वही कुछ २०० पन्नो का था. तो फ़र्मैट ने अगर कहा था की किताब के हाशिये में कम जगह है तो क्या ग़लत कहा था ! पिछले पोस्ट की टिपण्णी में ज्ञानजी ने कहा की उनके उपनिदेशक ने इस सवाल को लेकर फील्ड्स मेडल के सपने दिखाए थे... तो क्या एंड्र्यू वाइल्स को फील्ड्स मैडल मिला? क्यों नहीं मिलेगा भाई, आख़िर उन्होंने गणित का महानतम सवाल हल किया था ! पर क्या और क्यों हुआ जानते हैं अगली पोस्ट में. (फील्ड्स मेडल गणित के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के समान माना जाता है).
~Abhishek Ojha~
इस दौरान एक सवाल हल हो गया. बर्कली स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के केन रिबेट (Ken Ribet) ने जीन पिएरे के एप्सिलोन अनुभाग (Epsilon Conjecture) को साबित कर दिया. ये ख़बर सुनकर एंड्र्यू वाइल्स ने तानिमाया अनुभाग हल करने की ठान ली... क्योंकि अगर ये हो गया तो फिर फ़र्मैट का अन्तिम प्रमेय भी हो गया. और फिर सात सालों तक सारे शोध कार्य छोड़कर एकांत में... वो काम करते रहे... केवल एक सवाल पर... गणित के महानतम सवाल पर. कुछ रिसर्च पेपर से, पर ज्यादातर ख़ुद के दिमाग से... वो काम करते रहे. कहते हैं की २ साल तक वो सवाल में अपने आपको डुबाये रहे ताकि एक स्ट्रेटजी सोच सकें.
तानियामा के अनुसार इलिप्टिक कर्व और मोडुलर फोर्म्स दोनों सेट एक ही हैं... यानी हर एक सदस्य के लिए दुसरे में वैसा ही सदस्य मौजूद है... पर समस्या ये की दोनों सेट में अनंत सदस्य ! गिनें तो कैसे गिनें? उन्होंने सहायता ली गैल्वास (Galois) के सिद्धांतों की. (गैल्वास की मजेदार के साथ-साथ दुखद कहानी जल्दी ही किसी पोस्ट में). गैल्वास के सिद्धांत ने कमाल किया और अब समस्या रह गई गैल्वास के सिद्धांत से मोडुलर फॉर्म के तुलना की. तीन साल में इतना हो पाया और ये बात कोई नहीं जानता था सिवाय एंड्र्यू की पत्नी के! इसके बाद कई सारे शोध और कईयों की थियोरी का इस्तेमाल किया एंड्र्यू ने. वो ये बातें किसी को नहीं बताते दो कारण थे एक ये की वो अपना ध्यान नहीं भंग करना चाहते थे और दूसरा ये... कौन कहे की आज के जमाने में भी लोग फ़र्मैट के अन्तिम प्रमेय पर काम करते हैं :-) वो ये बातें पत्नी के अलावा केवल अपने मित्र निक कट्ज़ (Nick Katz) को बताते थे.
और फिर १९९३ में न्यूटन इंस्टीच्युट ऑफ़ मैथेमेटिकल साइंसेस, कैम्ब्रिज में अपने गाइड द्बारा आयोजित कांफ्रेंस में उन्होंने व्याख्यान दिया 'इलिप्टिक कर्व, मोडुलर फॉर्म और गैल्वास रेप्रेसेंटेशन' पर. व्याख्यान में कई नए विचार प्रस्तुत किए गए पर न तो व्याख्यान के शीर्षक में न ही व्याख्यान में फ़र्मैट की चर्चा थी. जब व्याख्यान देते-देते वो अंत तक पहुचे तो सुनाने वालों के चहरे गंभीर हो गए थे... सबको लग गया था की अब कुछ बड़ा होने वाला है और फिर उन्होंने लिख दिया 'फ़र्मैट के अन्तिम प्रमेय का कथन' और लिख दिया हेंस प्रूव्ड !
और अगले दिन हर अखबार में ये ख़बर आई की अंततः प्रमेय सिद्ध हो गया !
एक कमिटी बनी लंबे चौडे हल की जांच के लिए और फिर निकली एक गलती... [गणित के प्रूफ़ में गलती होना तो आम बात है... उनकी तो हो गई. हम तो जान बुझ के कर दिया करते थे... जब प्रूफ़ नहीं आ रहा हो तो एक तरफ़ से बढ़ते-बढ़ते कहीं तक गए, दूसरी तरफ से चले तो कहीं और. फिर बीच में एक लाइन ऐसी होती थी जहाँ दोनों को बराबर दिखा देते :-) पर आईआईटी के प्रोफेसर कभी नंबर नहीं दिए... उत्तर पुस्तिका में जब How? Why? और So What? How Come? जैसी टिपण्णी लिखी मिल जाती तो चुप-चाप उत्तर पुस्तिका को मोड़ के रख लेते :(] इधर फिर वापस एंड्र्यू को लगना पड़ा सवाल पर... पर इस बार मामला इतना आसान नहीं था, पहले वो बिना किसी को बताये इस सवाल पर शान्ति से काम करते पर अब सबकी नज़रें इस पर लगी हुई थी... (गनीमत है 'आज तक' जैसे चैनल न थे अमेरिका में तब, नहीं तो बेचारे कुछ ना कर पाते). ध्यान नहीं लग पा रहा था और पहली बार एंड्र्यू ने किसी की मदद ली और उन्होंने अपने पूर्व छात्र टेलर को बुला भेजा. एक साल तक कोई सफलता हाथ नहीं लगी... और फिर एक दिन, उन्हें समस्या दिख गई और उन्होंने उसे निपटा दिया. और फिर फ़र्मैट का अन्तिम प्रमेय पूरी तरह से हल हो गया.
पूरा हल १००० हजार पन्नो का हुआ... जो व्याख्यान 'न्यूटन इंस्टीच्युट ऑफ़ मैथेमेटिकल साइंसेस' में उन्होंने दिया था वही कुछ २०० पन्नो का था. तो फ़र्मैट ने अगर कहा था की किताब के हाशिये में कम जगह है तो क्या ग़लत कहा था ! पिछले पोस्ट की टिपण्णी में ज्ञानजी ने कहा की उनके उपनिदेशक ने इस सवाल को लेकर फील्ड्स मेडल के सपने दिखाए थे... तो क्या एंड्र्यू वाइल्स को फील्ड्स मैडल मिला? क्यों नहीं मिलेगा भाई, आख़िर उन्होंने गणित का महानतम सवाल हल किया था ! पर क्या और क्यों हुआ जानते हैं अगली पोस्ट में. (फील्ड्स मेडल गणित के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के समान माना जाता है).
~Abhishek Ojha~
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Wednesday, July 23, 2008
एक अनसुलझे सवाल से मिली मदद (बातें गणित की... भाग VIII)
पिछले पोस्ट में हमने चर्चा की थी फ़र्मैट के लिखे एक नोट से एक कठिनतम सवाल बन जाने की. हमने ये भी देखा की बड़े-बड़े गणितज्ञ धराशायी हो गए पर सवाल टस से मस नहीं हुआ.
पर इस बीच कुछ हुआ ही नहीं ऐसा भी नहीं है कई गणितज्ञों ने इस सवाल को कुछ ख़ास परिस्थितियों के लिए सही सिद्ध कर दिया... ओय्लर (Euler) ने n को ३ लेकर किया तो द्रिच्लेट (Dirichlet) और लिजेंद्रे (Legendre) ने मिलकर ५ के लिए. इसी तरह कुछ और अंको के लिए सिद्ध किया गया, १८५७ में क्युम्मर (Kummer) ने रूढ़ संख्याओं के एक ख़ास वर्ग के लिए सिद्ध किया. पर सारे अंको के लिए सिद्ध करना अभी भी दूर की बात थी. ब्रिटानिका एन्साइक्लोपेडिया में इस सवाल के जिक्र के अंत में लिखा गया था कि 'शायद यह प्रमेय कभी सही या ग़लत साबित न किया जा सके'.
इस बीच १९८८ में एक हल आया और खूब लोकप्रिय हुआ पर जब जांच हुई तो इसे ग़लत करार दिया गया... कुछ गणितज्ञों ने 'फ़र्मैट का अन्तिम प्रमेय कैसे साबित न करें' जैसे पेपर भी छपे जिसमें ये लिखा जाता कि इस तरीके से मैंने कोशिश कर ली है कोई फायदा नहीं !
सवाल कि कठिनता बढती गई और कहानियाँ भी बनती गई... इन सब के बीच १९५५ में २८ वर्षीय जापानी गणितज्ञ तानियामा (Taniyama) ने एक नया सवाल पेश किया... जो कहता है कि इलिप्टिक कर्व्स (Elliptic Curves) और मोडुलर फोर्म्स (Modular Forms) के बीच सम्बन्ध है... या फिर यूँ समझ लें कि छद्म वेश में दोनों एक दुसरे का ही रूप हैं. इसे समझने कि जरुरत नहीं बस इतना जान लीजिये कि ये नया सवाल कुछ ऐसा कहता था कि गणित की दो एकदम ही अलग चीजें एक-दुसरे से जुड़ी हुई है. लोगों को ज्यादा समझ नहीं आया, और इसी बीच १९५८ में तानियामा ने आत्म हत्या कर ली. उनके मित्र शमुरा (Shimura) ने इस सवाल पर और काम किया और लोगो तक इसे पहुचाया. अब कुछ फ़र्मैट की ही तरह तानियामा ने कह दिया था की ऐसा है... पर कोई प्रमाण इसका भी नहीं था. (इसे तानियामा-शिमुरा सवाल (Taniyama-Shimura Conjecture) के नाम से जाना जाता है).
पर क्या इस समानता के अलावा भी कोई और समानता थी? दोनों एकदम अलग... एक कहता है की इलिप्टिक कर्व और मोड्यूलर फॉर्म एक हैं... दूसरा कहता है की एक समीकरण का हल कोई ३ संख्याएं नहीं हो सकती ! दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं... पर नए विचार ही तो कमाल करते हैं... १९८५ में ग्रेहार्ड फ़्रे नाम के जर्मन गणितज्ञ वो सोच दिखाया जो कभी कोई सोच ही नहीं सकता था. फ़्रे ने मान लिया की फ़र्मैट ग़लत हैं, यानी कम से कम एक हल होना चाहिए उनके समीकरण का ! पर ये मानकर उन्होंने ये पाया की अगर ऐसा हुआ तो एक ऐसी इलिप्टिक कर्व बन जायेगी जो मोडुलर नहीं होगी ! पर तानियामाजी कह गए थे की हर इलिप्टिक मोडुलर होनी चाहिए. बस उन्होंने एक और निष्कर्ष निकाल दिया की अगर फ़र्मैट ग़लत हैं तो फिर तानियामा भी सही नहीं हो सकते यानी उन्हें भी ग़लत होना पड़ेगा. इसी को तार्किक भाषा में लिख दें तो ये कथन ऐसा हो जाता है: अगर तानियामा का कथन सत्य है तो फ़र्मैट का अन्तिम प्रमेय भी सत्य होगा. तो अब ये दोनों अनसुलझे सवाल जुड़ गए. पर समस्या ये थी की फ़्रे चचा ने भी कुछ साबित नहीं किया, बस कमाल का विचार देकर उन्होंने सोचा की विशेषज्ञ लोग ये सब साबित कर देंगे. और ऐसा ही हुआ विशेषज्ञों ने काम करना चालु कर दिया (फ़्रे के विचार को जीन पिएरे के विस्तार के बाद एप्सिलोन अनुभाग के नाम से जाना गया).
अब देखिये सारांश...
अभी तक सबने बस कहा... किसी ने कुछ साबित नहीं किया. और गणित में अगर साबित करना हटा दिया जाय तो कोई फेल ही ना हो :-) बिना साबित किए कभी किसी बात का कोई मतलब है गणित में ... कुछ नहीं ! तो फिर इन अनसुलझे हुए सवालों की पोटली से आगे क्या हुआ? देख के तो यही लगता है की अनसुलझे सवालों का अम्बार लगता जा रहा है... बस सबके तार जुड़ रहे हैं... तो क्या ये तार कुछ सुलझा पायेगा? जानते हैं अगले पोस्ट में!
- समीरजी क्यों ये कह कर दुखी कर रहे हैं की मैं गणित जानता हूँ... गणित ही जान रहा होता तो कहानियाँ क्यों सुनाता :-) और आपके विकल्प अच्छे तो हैं पर फिजिबल नहीं ! फिजिबल विकल्पों का सेट लेकर आइये तो सुझाव मिलेगा.
- अनुराग जी धन्यवाद आपका... सप्ताह में एक से दो पोस्ट तक करने की कोशिश है... सम्भव हो पाया तो सारा श्रेय आपका.
~Abhishek Ojha~
पर इस बीच कुछ हुआ ही नहीं ऐसा भी नहीं है कई गणितज्ञों ने इस सवाल को कुछ ख़ास परिस्थितियों के लिए सही सिद्ध कर दिया... ओय्लर (Euler) ने n को ३ लेकर किया तो द्रिच्लेट (Dirichlet) और लिजेंद्रे (Legendre) ने मिलकर ५ के लिए. इसी तरह कुछ और अंको के लिए सिद्ध किया गया, १८५७ में क्युम्मर (Kummer) ने रूढ़ संख्याओं के एक ख़ास वर्ग के लिए सिद्ध किया. पर सारे अंको के लिए सिद्ध करना अभी भी दूर की बात थी. ब्रिटानिका एन्साइक्लोपेडिया में इस सवाल के जिक्र के अंत में लिखा गया था कि 'शायद यह प्रमेय कभी सही या ग़लत साबित न किया जा सके'.
महान गणितज्ञ हिल्बर्ट (Hilbert) से जब ये पूछा गया की वो इस सवाल पर काम क्यों नहीं कर रहे तो उन्होंने जवाब दिया कि 'इस सवाल के लिए मुझे तीन साल तक गहन अध्ययन करना पड़ेगा और उसके बाद भी संभवतः हार का सामना करना पड़े.' हिल्बर्ट और इस सवाल पर एक प्रसिद्द किस्सा भी है, उन दिनों जहाज का नया-नया आविष्कार हुआ था और हिल्बर्ट को एक कांफ्रेंस में जाना था उन्होंने कह दिया कि मैं 'फ़र्मैट के अन्तिम प्रमेय' पर बोलने वाला हूँ जब उनका प्रेजेंटेशन ख़त्म हो गया और फ़र्मैट का कोई जिक्र तक नहीं आया तब लोगों ने पूछा कि आप तो फ़र्मैट पर बोलने वाले थे. हिल्बर्ट ने जवाब दिया कि वो मैंने इसलिए कहा था कि अगर प्लेन क्रैश हो गया होता तो मैं भी फ़र्मैट कि तरह अमर हो जाता. लोगों को लगता कि मैंने सिद्ध कर लिया था. |
इस बीच १९८८ में एक हल आया और खूब लोकप्रिय हुआ पर जब जांच हुई तो इसे ग़लत करार दिया गया... कुछ गणितज्ञों ने 'फ़र्मैट का अन्तिम प्रमेय कैसे साबित न करें' जैसे पेपर भी छपे जिसमें ये लिखा जाता कि इस तरीके से मैंने कोशिश कर ली है कोई फायदा नहीं !
सवाल कि कठिनता बढती गई और कहानियाँ भी बनती गई... इन सब के बीच १९५५ में २८ वर्षीय जापानी गणितज्ञ तानियामा (Taniyama) ने एक नया सवाल पेश किया... जो कहता है कि इलिप्टिक कर्व्स (Elliptic Curves) और मोडुलर फोर्म्स (Modular Forms) के बीच सम्बन्ध है... या फिर यूँ समझ लें कि छद्म वेश में दोनों एक दुसरे का ही रूप हैं. इसे समझने कि जरुरत नहीं बस इतना जान लीजिये कि ये नया सवाल कुछ ऐसा कहता था कि गणित की दो एकदम ही अलग चीजें एक-दुसरे से जुड़ी हुई है. लोगों को ज्यादा समझ नहीं आया, और इसी बीच १९५८ में तानियामा ने आत्म हत्या कर ली. उनके मित्र शमुरा (Shimura) ने इस सवाल पर और काम किया और लोगो तक इसे पहुचाया. अब कुछ फ़र्मैट की ही तरह तानियामा ने कह दिया था की ऐसा है... पर कोई प्रमाण इसका भी नहीं था. (इसे तानियामा-शिमुरा सवाल (Taniyama-Shimura Conjecture) के नाम से जाना जाता है).
पर क्या इस समानता के अलावा भी कोई और समानता थी? दोनों एकदम अलग... एक कहता है की इलिप्टिक कर्व और मोड्यूलर फॉर्म एक हैं... दूसरा कहता है की एक समीकरण का हल कोई ३ संख्याएं नहीं हो सकती ! दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं... पर नए विचार ही तो कमाल करते हैं... १९८५ में ग्रेहार्ड फ़्रे नाम के जर्मन गणितज्ञ वो सोच दिखाया जो कभी कोई सोच ही नहीं सकता था. फ़्रे ने मान लिया की फ़र्मैट ग़लत हैं, यानी कम से कम एक हल होना चाहिए उनके समीकरण का ! पर ये मानकर उन्होंने ये पाया की अगर ऐसा हुआ तो एक ऐसी इलिप्टिक कर्व बन जायेगी जो मोडुलर नहीं होगी ! पर तानियामाजी कह गए थे की हर इलिप्टिक मोडुलर होनी चाहिए. बस उन्होंने एक और निष्कर्ष निकाल दिया की अगर फ़र्मैट ग़लत हैं तो फिर तानियामा भी सही नहीं हो सकते यानी उन्हें भी ग़लत होना पड़ेगा. इसी को तार्किक भाषा में लिख दें तो ये कथन ऐसा हो जाता है: अगर तानियामा का कथन सत्य है तो फ़र्मैट का अन्तिम प्रमेय भी सत्य होगा. तो अब ये दोनों अनसुलझे सवाल जुड़ गए. पर समस्या ये थी की फ़्रे चचा ने भी कुछ साबित नहीं किया, बस कमाल का विचार देकर उन्होंने सोचा की विशेषज्ञ लोग ये सब साबित कर देंगे. और ऐसा ही हुआ विशेषज्ञों ने काम करना चालु कर दिया (फ़्रे के विचार को जीन पिएरे के विस्तार के बाद एप्सिलोन अनुभाग के नाम से जाना गया).
अब देखिये सारांश...
- फ़र्मैट ने एक बात कही की ऐसा नहीं हो सकता.
- तानियामा ने कहा की दो बिल्कुल ही अलग गणितीय चीजें जो देखने में तो बिल्कुल अलग हैं लेकिन ध्यान से देखो तो एक ही है.
- फ़्रे और जीन पिएरे ने कहा की भाई अगर तानियामा सही हैं तो फ़र्मैट भी सही है.
अभी तक सबने बस कहा... किसी ने कुछ साबित नहीं किया. और गणित में अगर साबित करना हटा दिया जाय तो कोई फेल ही ना हो :-) बिना साबित किए कभी किसी बात का कोई मतलब है गणित में ... कुछ नहीं ! तो फिर इन अनसुलझे हुए सवालों की पोटली से आगे क्या हुआ? देख के तो यही लगता है की अनसुलझे सवालों का अम्बार लगता जा रहा है... बस सबके तार जुड़ रहे हैं... तो क्या ये तार कुछ सुलझा पायेगा? जानते हैं अगले पोस्ट में!
- समीरजी क्यों ये कह कर दुखी कर रहे हैं की मैं गणित जानता हूँ... गणित ही जान रहा होता तो कहानियाँ क्यों सुनाता :-) और आपके विकल्प अच्छे तो हैं पर फिजिबल नहीं ! फिजिबल विकल्पों का सेट लेकर आइये तो सुझाव मिलेगा.
- अनुराग जी धन्यवाद आपका... सप्ताह में एक से दो पोस्ट तक करने की कोशिश है... सम्भव हो पाया तो सारा श्रेय आपका.
~Abhishek Ojha~
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Thursday, July 17, 2008
गणित के महानतम सवाल का रोचक इतिहास (बातें गणित की... भाग VII)
आज चर्चा करते हैं गणित के महानतम सवाल की. सवाल इतना आसान की १० साल की उमर के बच्चे को समझ में आ जाय. और इतना कठिन की गॉस जैसे महानतम गणितज्ञ परेशान हो जाय. इस सवाल की कठिनता इसी बात से लगे जा सकती है की गॉस ने इस सवाल को हल करने की कोशिश की और अंत में परेशान होकर उन्होंने एक पत्र में लिखा था: "वास्तव में, मैं यह स्वीकार करता हूँ की मुझे इस सवाल में बहुत कम रूचि है और ऐसे तो कई सवाल बनाए जा सकते है, जिन्हें न तो सही साबित किया जा सकता है न ग़लत."
फ़र्मैट सोलहवी शताब्दी के एक महान गणितज्ञ थे, पेशे से वकील इस महान फ्रांसीसी गणितज्ञ ने गणित के कई क्षेत्रों में महतवपूर्ण योगदान किया. जब न्यूटन ने कलन (Calculus) का आविष्कार किया तो उन्होंने कहा की इसका विचार उन्हें फ़र्मैट के काम को देखकर ही आया. १६३७ में फ़र्मैट ने एक किताब पढ़ते हुए उस पर लिखा की "मेरे पास इस सवाल का एक अद्भुत हल है, लेकिन इस किताब के हाशिये पर इतनी कम जगह है की ये लिखा नहीं जा सकता." अब उस हाशिये की कम जगह ने ऐसा गुल खिलाया की ये सवाल गणित का कठिनतम सवाल बन गया. गॉस ने तो कोशिश की ही की उनके अलावा ओय्लर, गैल्वास जैसे गणितज्ञों ने भी हाथ आजमाया, ऐसा माना जाता है की इस बात के छपने के बाद कोई गणितज्ञ ऐसा नहीं रहा जिसने इसे हल करने की कोशिश न की हो. गणितज्ञ ही क्यों जो भी सुनता एक बार कोशिश कर लेता, है ही इतना सरल देखने में. और फ़र्मैट चाचा ने लिख ही दिया था की उनके पास हल है, सब सोचते की लगे हाथों नाम कमा लिया जाय. फ़र्मैट के नाम पर ही इसे 'फ़र्मैट का अन्तिम प्रमेय'(Fermat's Last Theorem) नाम से जाना जाता है.
सवाल कुछ इस तरह है: अगर n, २ से बड़ा हो तो x^n + y^n = z^n का कोई अशून्य हल नहीं हो सकता. अर्थात ऐसी कोई तीन शून्य से भिन्न संख्याएं (x,y,z) नहीं हो सकती जिसके लिए समीकरण सत्य हो. अगर आपने पाइथागोरस प्रमेय पढ़ा है तो यह n की जगह २ रखने पर होता है, n को अगर २ लें तो ऐसी कई संख्याएँ हैं जैसे x=3, y=4, z=5 (3^2 + 4^2 = 5^2). पर क्या n>२ के लिए ऐसी तीन संख्याएं x,y,z सम्भव हैं?
फ़र्मैट के साथ ही इसका हल भी चला गया और अब लोग इस बात पर लगे रहे की ये कथन सत्य है या नहीं. इस सवाल की खूबसूरती यही थी की सब कोई समझ जाता हर किसी को लगता की अरे इसमें क्या है हल किए देता हूँ ! पर सदियाँ बीत गई. इस सवाल ने कईयों के दिन और रातें ख़राब की. पाइथागोरस प्रमेय हल करना आसान था लेकिन २ से बढ़ते ही... फ़र्मैट ने कह दिया की संख्याएं सम्भव नहीं (और ये भी कह गए थे की उनके पास इस बात का प्रमाण भी है)... लेकिन ये बात साबित कैसे हो... ऐसी संख्याएं हो भी तो सकती है ! लोग साबित करने की कोशिश करते. कई ऐसे नंबर ही ढूंढ़ते जिसके लिए ये समीकरण सही हो जाय. वैसे तो फ़र्मैट ने किताबें पढ़ते हुए ऐसे कई नोट लिखे थे किताबों के हाशियों पर, सब साबित होते चले गए... अंत में बच गया ये और इसीलिए नाम पड़ गया 'फ़र्मैट का अन्तिम प्रमेय'.
अब कम्प्यूटर की खोज हो गई तो क्या ऐसा नहीं है की सारे नंबर के लिए चेक कर लो. ये कौन सी बड़ी बात है... लेकिन बड़ी बात है... क्योंकि ये काम कम्प्यूटर नहीं कर सकता! कितने नंबर आप चेक करेंगे?... हजारों, लाखों तब भी बहुत सारे बचे रहेंगे... आप अनंत तक कभी नहीं जा सकते... लाखों करोडो अंक कम करते जाएँ तब भी अनंत अंक बचे रहेंगे. ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्य्ते॥
आप अनंत से अनंत निकाल ले तो भी अनंत ही शेष रहता है. तो कम्प्यूटर फ़ेल. यही कारण है की ऐसे प्रमाण को गणितज्ञ नकार देते हैं. गणित में कुछ भी साबित करने की प्रथा रही है. स्टेप-बाई-स्टेप ताकि कुछ गुन्जाईस ना बची रह जाय. गणितज्ञों को चुनौती बहुत पसंद है पर ये चुनौती उन्हें हराती रही. धीरे-धीरे ऐसा लगा की गणितज्ञों ने हार मान ली है... इस सवाल पर काम करना ना के बराबर हो गया. या यूँ कह लें की कोई भी इस पर काम करने से डरता था (जो करता भी छुप के करता, ताकि लोग हँसी ना उडाएं). तो फिर क्या हुआ इस सवाल का? क्या किसी ने हिम्मत की... अगर आप जानते तो अच्छी बात हैं, वैसे जानेंगे यहाँ पर बाकी कई सारी रोचक जानकारी के साथ अगले पोस्ट में !
इस सवाल पर कई किताबें है और एक प्रसिद्द डोक्युमेन्ट्री भी बनी. इस पोस्ट में कई बातें उस डॉक्युमेंट्री से भी ली जायेंगी.
- आंकडों वाली पोस्ट पर द्विवेदीजी की टिपण्णी से एक बात याद आई: हमारे समाजशास्त्र (Sociology) के एक प्रोफेसर सांख्यिकी(Statistics) के प्रोफेसर के पास आए थे और उन्होंने कहा की मेरे पास ये कुछ आंकडा है और मैं अपनी मान्यताओं को गणित का जामा पहनाना चाहता हूँ तो आप कोई ऐसा मॉडल बता दीजिये जिससे वो ही रिजल्ट आयें जो मेरी मान्यता का समर्थन करें.:-) तो गणित तो बेचारा गणित है उसका उपयोग भी लोग अपनी मर्जी से कर लेते हैं. मूक बेचारा क्या कर सकता है भला !
- समीरजी आपको वेटेड एवेरेज से डरने की जरुरत नहीं है... आप टिपण्णी करने वालो पर की जाने वाली हर तरह की अनाल्य्सिस में आउटलायर ही रहेंगे. किसी भी कर्व फिटिंग से पहले ही आप को बाहर कर दिया जायेगा :-) नहीं तो अकेले ही सारा कर्व स्क्यू कर देंगे आप.
चित्र साभार: विकिपीडिया
~Abhishek Ojha~
फ़र्मैट सोलहवी शताब्दी के एक महान गणितज्ञ थे, पेशे से वकील इस महान फ्रांसीसी गणितज्ञ ने गणित के कई क्षेत्रों में महतवपूर्ण योगदान किया. जब न्यूटन ने कलन (Calculus) का आविष्कार किया तो उन्होंने कहा की इसका विचार उन्हें फ़र्मैट के काम को देखकर ही आया. १६३७ में फ़र्मैट ने एक किताब पढ़ते हुए उस पर लिखा की "मेरे पास इस सवाल का एक अद्भुत हल है, लेकिन इस किताब के हाशिये पर इतनी कम जगह है की ये लिखा नहीं जा सकता." अब उस हाशिये की कम जगह ने ऐसा गुल खिलाया की ये सवाल गणित का कठिनतम सवाल बन गया. गॉस ने तो कोशिश की ही की उनके अलावा ओय्लर, गैल्वास जैसे गणितज्ञों ने भी हाथ आजमाया, ऐसा माना जाता है की इस बात के छपने के बाद कोई गणितज्ञ ऐसा नहीं रहा जिसने इसे हल करने की कोशिश न की हो. गणितज्ञ ही क्यों जो भी सुनता एक बार कोशिश कर लेता, है ही इतना सरल देखने में. और फ़र्मैट चाचा ने लिख ही दिया था की उनके पास हल है, सब सोचते की लगे हाथों नाम कमा लिया जाय. फ़र्मैट के नाम पर ही इसे 'फ़र्मैट का अन्तिम प्रमेय'(Fermat's Last Theorem) नाम से जाना जाता है.
सवाल कुछ इस तरह है: अगर n, २ से बड़ा हो तो x^n + y^n = z^n का कोई अशून्य हल नहीं हो सकता. अर्थात ऐसी कोई तीन शून्य से भिन्न संख्याएं (x,y,z) नहीं हो सकती जिसके लिए समीकरण सत्य हो. अगर आपने पाइथागोरस प्रमेय पढ़ा है तो यह n की जगह २ रखने पर होता है, n को अगर २ लें तो ऐसी कई संख्याएँ हैं जैसे x=3, y=4, z=5 (3^2 + 4^2 = 5^2). पर क्या n>२ के लिए ऐसी तीन संख्याएं x,y,z सम्भव हैं?
फ़र्मैट के साथ ही इसका हल भी चला गया और अब लोग इस बात पर लगे रहे की ये कथन सत्य है या नहीं. इस सवाल की खूबसूरती यही थी की सब कोई समझ जाता हर किसी को लगता की अरे इसमें क्या है हल किए देता हूँ ! पर सदियाँ बीत गई. इस सवाल ने कईयों के दिन और रातें ख़राब की. पाइथागोरस प्रमेय हल करना आसान था लेकिन २ से बढ़ते ही... फ़र्मैट ने कह दिया की संख्याएं सम्भव नहीं (और ये भी कह गए थे की उनके पास इस बात का प्रमाण भी है)... लेकिन ये बात साबित कैसे हो... ऐसी संख्याएं हो भी तो सकती है ! लोग साबित करने की कोशिश करते. कई ऐसे नंबर ही ढूंढ़ते जिसके लिए ये समीकरण सही हो जाय. वैसे तो फ़र्मैट ने किताबें पढ़ते हुए ऐसे कई नोट लिखे थे किताबों के हाशियों पर, सब साबित होते चले गए... अंत में बच गया ये और इसीलिए नाम पड़ गया 'फ़र्मैट का अन्तिम प्रमेय'.
अब कम्प्यूटर की खोज हो गई तो क्या ऐसा नहीं है की सारे नंबर के लिए चेक कर लो. ये कौन सी बड़ी बात है... लेकिन बड़ी बात है... क्योंकि ये काम कम्प्यूटर नहीं कर सकता! कितने नंबर आप चेक करेंगे?... हजारों, लाखों तब भी बहुत सारे बचे रहेंगे... आप अनंत तक कभी नहीं जा सकते... लाखों करोडो अंक कम करते जाएँ तब भी अनंत अंक बचे रहेंगे. ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्य्ते॥
आप अनंत से अनंत निकाल ले तो भी अनंत ही शेष रहता है. तो कम्प्यूटर फ़ेल. यही कारण है की ऐसे प्रमाण को गणितज्ञ नकार देते हैं. गणित में कुछ भी साबित करने की प्रथा रही है. स्टेप-बाई-स्टेप ताकि कुछ गुन्जाईस ना बची रह जाय. गणितज्ञों को चुनौती बहुत पसंद है पर ये चुनौती उन्हें हराती रही. धीरे-धीरे ऐसा लगा की गणितज्ञों ने हार मान ली है... इस सवाल पर काम करना ना के बराबर हो गया. या यूँ कह लें की कोई भी इस पर काम करने से डरता था (जो करता भी छुप के करता, ताकि लोग हँसी ना उडाएं). तो फिर क्या हुआ इस सवाल का? क्या किसी ने हिम्मत की... अगर आप जानते तो अच्छी बात हैं, वैसे जानेंगे यहाँ पर बाकी कई सारी रोचक जानकारी के साथ अगले पोस्ट में !
इस सवाल पर कई किताबें है और एक प्रसिद्द डोक्युमेन्ट्री भी बनी. इस पोस्ट में कई बातें उस डॉक्युमेंट्री से भी ली जायेंगी.
कल रंजनाजी ने एक ब्लॉग समीक्षा लिखी इस श्रृंखला पर. आप इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं. बहुत-बहुत आभार रंजनाजी का. रंजनाजी ने कुछ ज्यादा ही बड़ाई कर दी है. पर उनका आशीर्वाद मिला है, खुश रहने का... तो खुशी-खुशी सर माथे पर.
- आंकडों वाली पोस्ट पर द्विवेदीजी की टिपण्णी से एक बात याद आई: हमारे समाजशास्त्र (Sociology) के एक प्रोफेसर सांख्यिकी(Statistics) के प्रोफेसर के पास आए थे और उन्होंने कहा की मेरे पास ये कुछ आंकडा है और मैं अपनी मान्यताओं को गणित का जामा पहनाना चाहता हूँ तो आप कोई ऐसा मॉडल बता दीजिये जिससे वो ही रिजल्ट आयें जो मेरी मान्यता का समर्थन करें.:-) तो गणित तो बेचारा गणित है उसका उपयोग भी लोग अपनी मर्जी से कर लेते हैं. मूक बेचारा क्या कर सकता है भला !
- समीरजी आपको वेटेड एवेरेज से डरने की जरुरत नहीं है... आप टिपण्णी करने वालो पर की जाने वाली हर तरह की अनाल्य्सिस में आउटलायर ही रहेंगे. किसी भी कर्व फिटिंग से पहले ही आप को बाहर कर दिया जायेगा :-) नहीं तो अकेले ही सारा कर्व स्क्यू कर देंगे आप.
चित्र साभार: विकिपीडिया
~Abhishek Ojha~
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कुछ बातें
Saturday, July 12, 2008
आंकडों की समस्या और ब्लॉगजगत का गणित (बातें गणित की भाग... VI)
पिछले पोस्ट पर आई दो टिपण्णीयाँ:
अनूप शुक्ल: अच्छा गणितीय उपयोग है। निष्कर्ष के लिये गणित सहयोगी है लेकिन ये आंकड़े जुटाना अपने में कठिन काम है।
masijeevi: रोचक काम करते रहे हैं आप।
कुछ और ब्यौरे रहते तो और अच्छा होता- ब्लॉगवाणी जैसी झलकियॉं हो गईं इस बात से हम भी सहमत हैं।
कुछ और मॉडलों पर विचार करें- कैसे तय हो कि आज की सबसे अच्छी पोस्ट किसकी होगी... कौन सी पोस्टें पढी जाएंगी किन पर टिप्पणी मिलेंगी और ऐसी कितनी होंगी जिनपर टिप्पणी तो मिलेंगी लेकिन पढ़ी नहीं जाएंगी... मतलब ब्लॉगजगत का गणित :))
अनूप जी ने बिल्कुल सही बात कही है, हमें तो आंकड़े दे दिए गए थे, लेकिन अगर ऐसे निष्कर्षों तक पहुचने में कुछ सबसे ज्यादा दिक्कत काम है तो वो है आंकडा इकठ्ठा करना. अपने देश में और मुश्किल, अपने देश में मुश्किल इसलिए की चीज़ें थोडी अव्यवस्थित हैं... या यूँ कहें की एकाउंटएबिलिटी नहीं है हर चीज़ की.अब देखिये जैसे पिछली पोस्ट में बनिए की दूकान से डिटर्जेंट का आंकडा इकठ्ठा किया गया था कनाडा में. उसमे किस परिवार ने क्या खरीदा?, महीने के किस तारीख को खरीदा?, उस घर में कितने लोग है? कितनी आय है? इस प्रकार से खूब आंकड़े थे. इन्हें इकठ्ठा करना वहां आसान था, हर ग्राहक को एक स्मार्ट कार्ड बाँट दिया गया और फिर काम आसान हो गया. वैसे ही अगर किस राज्य में कितनी गाडियां बिकी... किसी एक साल में ये जानना हो तो अपने देश में हर आरटीओ जाकर हर वर्ग में रजिस्टर हुई गाड़ियों की संख्या पता करो या फिर हर तरह के गाड़ी निर्माताओं से संपर्क करो. ये जानकारी हासिल करना उन देशों में आसान हो जाता है जहाँ सबकुछ कम्प्यूटर की सहायता से होता है. ये भी एक कारण है की रिसर्च पेपर उन देशों के आंकडों से ज्यादा छपते है और अपने यहाँ पूरी तरह से प्रभावी नहीं होते. अभी तक सांख्यिकी पर कुछ लिखा ही नहीं गया इस श्रृंखला में. तो आंकडो की समस्या की चर्चा उस पोस्ट के लिए छोड़ देते हैं।
अब बात ब्लॉग जगत के गणित की, मसीजीवीजी के सारे सवालों के उत्तर बहुत आसान है, बस कमी है तो आंकडों की. आप आंकड़े ले आइये हम जवाब देते हैं :-) वैसे आंकडें न भी मिलें तो थियोरी तो दी ही जा सकती है तो चलिए कुछ साधारण बातों की चर्चा कर लेते हैं. यह मानते हुए की आंकड़े उपलब्ध है. वैसे इस प्रकार का काम खूब होता है आजकल. जैसे मान लीजिये रेडिफ.कॉम खोला आपने. हर एक विजीट और क्लिक की अनाल्य्सिस की जाती है. इस बात की भी अनाल्य्सिस की जाती है कौन से ऐडवटाइज्मेन्ट ज्यादा क्लिक होते हैं? और कैसी हेडलाइनें ज्यादा पढ़ी जाती है. अब रेडिफ.कॉम की घर की खेती है... सारे आंकड़े होते हैं उनके पास हमें आंकडें मिलेंगे कहाँ से?
इन सब में डाटा माइनिंग,पैटर्न मैचिंग और सांख्यिकी का खूब इस्तेमाल होता है. मेरे कई दोस्त इस तरह के काम भी करते हैं.
अब मान लीजिये की सारा आंकडा उपलब्ध है तो उसमें ट्रेंड निकालना बड़ी बात नहीं होती. और उससे कई तरह की जानकारी निकाली जा सकती है. और फिर जरुरत के हिसाब से मॉडल में सुधार भी किया जा सकता है. कुछ प्राथमिक जानकारी तो ऐसे ही मिल जायेगी जैसे:
- कितने प्रतिशत पोस्ट ऐसे हैं जिन पर टिपण्णी है.
- हर पोस्ट पर औसत कितनी टिपण्णी आती है (इसके साथ ही माध्यिका(median) और बहुलक(mode) भी निकाला जा सकता है).
- औसत अंतराल जिन पर टिपण्णी आती है किसी ब्लॉग पर.
- टिपण्णी की लम्बाई (उसका औसत, मध्यिका, मानक विचलन(standard deviation) इत्यादि)
अब वितरण भी निकाला जा सकता है... मेरे हिसाब से अगर टिपण्णीयों की संख्या का वितरण (distribution) निकाला जाय तो कुछ इस तरह का आना चाहिए. यहाँ एक्स-अक्सिस पर टिपण्णीयों की संख्या तथा वाय-अक्सिस पर ब्लोगों की संख्या है. इसे लम्बी पुँछ का वितरण (Long tail distribution) भी कहा जाता है.बात साफ़ है ज्यादा टिपण्णी वाले ब्लोगों की संख्या कम है और कम या फिर बिना टिपण्णी वाले ब्लॉग की संख्या ज्यादा. अगर टिपण्णी की लम्बाई ले तो भी ऐसा ही वितरण आना चाहिए यानी किसी ब्लॉग पर लम्बी टिपण्णी वाले पोस्ट कम और छोटी टिपण्णी वाले पोस्ट ज्यादा होंगे. (यहाँ एक्स-अक्सिस पर टिपण्णी की लम्बाई और वाय-अक्सिस पर पोस्ट की संख्या).अगर एक बार वितरण का अनुमान हो गया तो फिर कई सूत्र हैं जानकारी निकालने के लिए. अब इसमें कुछ आउटलायर भी होंगे, जैसे मान लीजिये किसी ने टिपण्णी करना ही डिसेबल कर दिया हो. या फिर ऐसे जिन्हें खूब टिपण्णी मिलती हो. वैसे बिना आंकडों के भी ऐसे आउटलायरों को तो हम जानते ही हैं :-)
अब आगे बढ़ते हैं अगले सवालों की तरफ़ अगर हम ब्लॉग पर आने वालों की संख्या तथा टिपण्णी की संख्यां के बीच सहसंबंध (correlation) निकाल लें तो ये भी बड़े काम की जानकारी होगी, इससे ये पता चलेगा की किसी ब्लॉग पर आने वाले लोग टिपण्णी करते हैं या नहीं (हिट्स बढ़ा लेने की लिए ब्लॉग पर कीवर्ड या विवादित शब्द डाले जा सकते हैं, पर इससे टिपण्णी की संख्या नहीं बढाई जा सकती !) अब इसमे भी वितरण निकालने पर आउटलायर निकाले जा सकते हैं, वैसे जिनपर लोग आते तो हैं पर टिपण्णी नहीं करते (इसका कारण मोडरेशन भी हो सकता है). और ऐसे भी जिन पर लोग तो कम आते हैं पर उस हिसाब से टिपण्णी ज्यादा ऐसा हिन्दी ब्लोग्स में अक्सर देखने को मिलता हैं जहाँ लोग एक मित्र मंडली की तरह ब्लॉग पढ़ते हैं और जो भी आता है एक टिपण्णी चटका जाता है. तो लोकप्रियता का बेहतर मापदंड केवल टिपण्णी या केवल ब्लॉग विजीट न होकर उनके बीच का सहसंबंध भी हो सकता है. अब ऐसा भी होता है की किसी एक ब्लॉग में कुछ पोस्ट ओउलायर होते हैं... इनको अलग करके इनमे पैटर्न निकाला जा सकता है. पैटर्न निकालने में एक उदहारण देना चाहूँगा मान लीजिये की हम देखते हैं की किसी ब्लॉग पर आई कुल टिपण्णीयों में कितने 'साधुवाद', फिर 'सहमत हूँ आपसे', 'धन्यवाद इस पोस्ट के लिए', 'रोचक जानकारी' जैसे हैं. इनकी संख्या तथा अन्य टिपण्णीयों की लम्बाई पर मॉडल बनाए जा सकते हैं. इसके अलावा इस बात की भी जांच की जा सकती है की कितने बजे छपने वाले पोस्ट पर कितनी टिपण्णी आती है. (इसके लिए एक ही ब्लॉग के पोस्ट के छपने का समय और आई टिपण्णीयों का सम्बन्ध भी मिल सकता है) बहुत तरह का गणित लगाया जा सकता है, जरुरत है तो सिर्फ़ आंकडों की !
~Abhishek Ojha~
अनूप शुक्ल: अच्छा गणितीय उपयोग है। निष्कर्ष के लिये गणित सहयोगी है लेकिन ये आंकड़े जुटाना अपने में कठिन काम है।
masijeevi: रोचक काम करते रहे हैं आप।
कुछ और ब्यौरे रहते तो और अच्छा होता- ब्लॉगवाणी जैसी झलकियॉं हो गईं इस बात से हम भी सहमत हैं।
कुछ और मॉडलों पर विचार करें- कैसे तय हो कि आज की सबसे अच्छी पोस्ट किसकी होगी... कौन सी पोस्टें पढी जाएंगी किन पर टिप्पणी मिलेंगी और ऐसी कितनी होंगी जिनपर टिप्पणी तो मिलेंगी लेकिन पढ़ी नहीं जाएंगी... मतलब ब्लॉगजगत का गणित :))
अनूप जी ने बिल्कुल सही बात कही है, हमें तो आंकड़े दे दिए गए थे, लेकिन अगर ऐसे निष्कर्षों तक पहुचने में कुछ सबसे ज्यादा दिक्कत काम है तो वो है आंकडा इकठ्ठा करना. अपने देश में और मुश्किल, अपने देश में मुश्किल इसलिए की चीज़ें थोडी अव्यवस्थित हैं... या यूँ कहें की एकाउंटएबिलिटी नहीं है हर चीज़ की.अब देखिये जैसे पिछली पोस्ट में बनिए की दूकान से डिटर्जेंट का आंकडा इकठ्ठा किया गया था कनाडा में. उसमे किस परिवार ने क्या खरीदा?, महीने के किस तारीख को खरीदा?, उस घर में कितने लोग है? कितनी आय है? इस प्रकार से खूब आंकड़े थे. इन्हें इकठ्ठा करना वहां आसान था, हर ग्राहक को एक स्मार्ट कार्ड बाँट दिया गया और फिर काम आसान हो गया. वैसे ही अगर किस राज्य में कितनी गाडियां बिकी... किसी एक साल में ये जानना हो तो अपने देश में हर आरटीओ जाकर हर वर्ग में रजिस्टर हुई गाड़ियों की संख्या पता करो या फिर हर तरह के गाड़ी निर्माताओं से संपर्क करो. ये जानकारी हासिल करना उन देशों में आसान हो जाता है जहाँ सबकुछ कम्प्यूटर की सहायता से होता है. ये भी एक कारण है की रिसर्च पेपर उन देशों के आंकडों से ज्यादा छपते है और अपने यहाँ पूरी तरह से प्रभावी नहीं होते. अभी तक सांख्यिकी पर कुछ लिखा ही नहीं गया इस श्रृंखला में. तो आंकडो की समस्या की चर्चा उस पोस्ट के लिए छोड़ देते हैं।
अब बात ब्लॉग जगत के गणित की, मसीजीवीजी के सारे सवालों के उत्तर बहुत आसान है, बस कमी है तो आंकडों की. आप आंकड़े ले आइये हम जवाब देते हैं :-) वैसे आंकडें न भी मिलें तो थियोरी तो दी ही जा सकती है तो चलिए कुछ साधारण बातों की चर्चा कर लेते हैं. यह मानते हुए की आंकड़े उपलब्ध है. वैसे इस प्रकार का काम खूब होता है आजकल. जैसे मान लीजिये रेडिफ.कॉम खोला आपने. हर एक विजीट और क्लिक की अनाल्य्सिस की जाती है. इस बात की भी अनाल्य्सिस की जाती है कौन से ऐडवटाइज्मेन्ट ज्यादा क्लिक होते हैं? और कैसी हेडलाइनें ज्यादा पढ़ी जाती है. अब रेडिफ.कॉम की घर की खेती है... सारे आंकड़े होते हैं उनके पास हमें आंकडें मिलेंगे कहाँ से?
इन सब में डाटा माइनिंग,पैटर्न मैचिंग और सांख्यिकी का खूब इस्तेमाल होता है. मेरे कई दोस्त इस तरह के काम भी करते हैं.
अब मान लीजिये की सारा आंकडा उपलब्ध है तो उसमें ट्रेंड निकालना बड़ी बात नहीं होती. और उससे कई तरह की जानकारी निकाली जा सकती है. और फिर जरुरत के हिसाब से मॉडल में सुधार भी किया जा सकता है. कुछ प्राथमिक जानकारी तो ऐसे ही मिल जायेगी जैसे:
- कितने प्रतिशत पोस्ट ऐसे हैं जिन पर टिपण्णी है.
- हर पोस्ट पर औसत कितनी टिपण्णी आती है (इसके साथ ही माध्यिका(median) और बहुलक(mode) भी निकाला जा सकता है).
- औसत अंतराल जिन पर टिपण्णी आती है किसी ब्लॉग पर.
- टिपण्णी की लम्बाई (उसका औसत, मध्यिका, मानक विचलन(standard deviation) इत्यादि)
अब वितरण भी निकाला जा सकता है... मेरे हिसाब से अगर टिपण्णीयों की संख्या का वितरण (distribution) निकाला जाय तो कुछ इस तरह का आना चाहिए. यहाँ एक्स-अक्सिस पर टिपण्णीयों की संख्या तथा वाय-अक्सिस पर ब्लोगों की संख्या है. इसे लम्बी पुँछ का वितरण (Long tail distribution) भी कहा जाता है.बात साफ़ है ज्यादा टिपण्णी वाले ब्लोगों की संख्या कम है और कम या फिर बिना टिपण्णी वाले ब्लॉग की संख्या ज्यादा. अगर टिपण्णी की लम्बाई ले तो भी ऐसा ही वितरण आना चाहिए यानी किसी ब्लॉग पर लम्बी टिपण्णी वाले पोस्ट कम और छोटी टिपण्णी वाले पोस्ट ज्यादा होंगे. (यहाँ एक्स-अक्सिस पर टिपण्णी की लम्बाई और वाय-अक्सिस पर पोस्ट की संख्या).अगर एक बार वितरण का अनुमान हो गया तो फिर कई सूत्र हैं जानकारी निकालने के लिए. अब इसमें कुछ आउटलायर भी होंगे, जैसे मान लीजिये किसी ने टिपण्णी करना ही डिसेबल कर दिया हो. या फिर ऐसे जिन्हें खूब टिपण्णी मिलती हो. वैसे बिना आंकडों के भी ऐसे आउटलायरों को तो हम जानते ही हैं :-)
अब आगे बढ़ते हैं अगले सवालों की तरफ़ अगर हम ब्लॉग पर आने वालों की संख्या तथा टिपण्णी की संख्यां के बीच सहसंबंध (correlation) निकाल लें तो ये भी बड़े काम की जानकारी होगी, इससे ये पता चलेगा की किसी ब्लॉग पर आने वाले लोग टिपण्णी करते हैं या नहीं (हिट्स बढ़ा लेने की लिए ब्लॉग पर कीवर्ड या विवादित शब्द डाले जा सकते हैं, पर इससे टिपण्णी की संख्या नहीं बढाई जा सकती !) अब इसमे भी वितरण निकालने पर आउटलायर निकाले जा सकते हैं, वैसे जिनपर लोग आते तो हैं पर टिपण्णी नहीं करते (इसका कारण मोडरेशन भी हो सकता है). और ऐसे भी जिन पर लोग तो कम आते हैं पर उस हिसाब से टिपण्णी ज्यादा ऐसा हिन्दी ब्लोग्स में अक्सर देखने को मिलता हैं जहाँ लोग एक मित्र मंडली की तरह ब्लॉग पढ़ते हैं और जो भी आता है एक टिपण्णी चटका जाता है. तो लोकप्रियता का बेहतर मापदंड केवल टिपण्णी या केवल ब्लॉग विजीट न होकर उनके बीच का सहसंबंध भी हो सकता है. अब ऐसा भी होता है की किसी एक ब्लॉग में कुछ पोस्ट ओउलायर होते हैं... इनको अलग करके इनमे पैटर्न निकाला जा सकता है. पैटर्न निकालने में एक उदहारण देना चाहूँगा मान लीजिये की हम देखते हैं की किसी ब्लॉग पर आई कुल टिपण्णीयों में कितने 'साधुवाद', फिर 'सहमत हूँ आपसे', 'धन्यवाद इस पोस्ट के लिए', 'रोचक जानकारी' जैसे हैं. इनकी संख्या तथा अन्य टिपण्णीयों की लम्बाई पर मॉडल बनाए जा सकते हैं. इसके अलावा इस बात की भी जांच की जा सकती है की कितने बजे छपने वाले पोस्ट पर कितनी टिपण्णी आती है. (इसके लिए एक ही ब्लॉग के पोस्ट के छपने का समय और आई टिपण्णीयों का सम्बन्ध भी मिल सकता है) बहुत तरह का गणित लगाया जा सकता है, जरुरत है तो सिर्फ़ आंकडों की !
आगे जिस सवाल की चर्चा होनी है वो गणित के एक हलके सवाल से शुरू हुआ और गणित का सबसे कठिन सवाल बन गया, इतना आसन की छठी कक्षा के छात्र को समझ में आ जाय और इतना कठिन की ४०० सालों तक कोई गणितज्ञ ना हल कर पाया. इतिहास के सबसे बड़े-बड़े गणितज्ञों ने हाथ आजमाया... क्या हुआ जानते हैं जल्दी ही.. !
~Abhishek Ojha~
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कुछ बातें
Thursday, July 10, 2008
गणित के कुछ वास्तविक प्रयोग (बातें गणित की भाग... V)
आज गणित के कुछ ऐसे प्रयोग जिनसे मैं ख़ुद जुडा हूँ, जी हाँ कुछ ऐसे प्रयोग जिनपर मैंने काम किया... अर्थशास्त्र, मार्केटिंग, मनोविज्ञान और इंजीनियरिंग जैसे कुछ क्षेत्रों से बातें होगी, फुटबॉल और क्रिकेट जैसे खेल आपको पसंद हैं तो उनका भी जिक्र भी आ जायेगा और अगर आपको लगता है की मैच देखना समय की बर्बादी है तो वो भी जोड़ लेंगे... कहीं आपको ऐसा तो नहीं लग रहा है की ये सब गणित में कहाँ से आ गया, अब वास्तविक प्रयोग है तो वास्तविकता ही ज्यादा होगी ना ! अगर आप इससे आगे नहीं पढ़ रहे तो आपको बताता चलूँ की जल्दी ही गणित के सबसे रोचक सवाल के इतिहास और उससे जुड़े रोचक तथ्यों पर अगली पोस्ट आने वाली है (अगर ये पोस्ट दो भागों में नहीं बटी तो) पर आगे पढने से डरने की जरुरत नहीं है... सब कुछ समझ में आने की गारंटी मेरी !
1. बात की शुरुआत राजनीति और उर्जा से... तेल की कीमतों और न्यूक्लियर डील से तो आप सब परिचित हैं ही, अब एक और विकल्प भी आप अखबारों में देखते ही होंगे ईरान-पकिस्तान पाइपलाइन की... ईरान से पाकिस्तान होते हुए भारत तक गैस लाने के लिए पाइपलाइन बनाने की. अब गणित लगाना था की कौन-कौन से विकल्प हैं भारत के पास... कौन सा विकल्प महंगा पड़ेगा और कितना... चलिए अब इस प्राकृतिक गैस के बारे में भी जान लेते हैं... दो मुख्य तरीके होते हैं इसे एक जगह से दुसरे जगह ले जाने के, पहला गैस पाइपलाइन और दूसरा टैंकरयुक्त पानी के जहाजों से. तो फिर पाकिस्तान को बीच में लाने की जरुरत ही क्या है? टैंकर से ही ले आते हैं... पर गणित कुछ और कहता है... जब हम खर्च की बात करते हैं तो पता चलता है की एक ख़ास दुरी तक से गैस लाने में पाइपलाइन की गैस बहुत सस्ती पड़ती है वहीँ उस दूरी से ज्यादा दूरी से गैस लानी हो तो टैकर सस्ते पड़ते हैं. खर्चे कई तरह के होते हैं, कुछ खर्चे दोनों तरीकों में होते हैं जैसे गैस को निकलना और उसे उपयोगी बनाना, जमीन या समुद्र से निकलने वाली गैस में कई सारे अवांछनीय पदार्थ भी होते हैं... कई बार इन अवांछनीय पदार्थों को जमीन के अन्दर वापस डालना पड़ता है... इसे वापस डालते समय भी इससे प्रेसर बनाया जाता है ताकि और गैस जमीन के अन्दर से आसानी से निकाली जा सके. टैंकर का इस्तेमाल करना हो तो गैस को पहले द्रव में परिवर्तित करना पड़ता है, उसके बाद टैंकरों का खर्च अलग, तो क्या पाइपलाइन एक बार बना दी तो गैस भेजते रहो? नहीं ऐसा नहीं है... पाइपलाइन में उपयुक्त प्रेशर बनाए रखने के लिए थोडी-थोडी दूर पर कम्प्रेसर लगाने पड़ते हैं, और उनका खर्च अलग से, उनके लिए उर्जा भी अलग से... दोनों ही तरीकों में मेंटेनेंस जैसे खर्च होते ही हैं. जैसे दूरी के हिसाब से टैंकर बेहतर हो जाता है वैसे ही कांट्रेक्ट की अवधि के हिसाब से भी होता है... अगर लम्बी अवधि का कांट्रेक्ट हो तो पाइपलाइन सस्ता पड़ता है और कम अवधि का हो तो द्रवित प्राकृतिक गैस के टैंकर सस्ते होते हैं. पाइपलाइन भी जमीन के अलावा समुद्र में भी हो सकती है... उसके लिए टेक्नोलॉजी और खर्च दोनों चाहिए. इस तरह इन सारी चीज़ों का ध्यान रखते हुए हमने मॉडल बनाया और फिर ग्राफ्स और अन्तिम कीमत निकलने के लिए सूत्र. पाइपलाइन वाला फार्मूला थोड़ा जटिल हो गया क्योंकि कम्प्रेसर के लिए मेकेनिकल इंजीनियरिंग की मदद लेनी पड़ी.
2. अब बात करते हैं प्रोसेस मोडेलिंग की... ये काम बहुत रोचक था इसमें साधारण ओपरेशन रिसर्च से लेकर मनोविज्ञान तक का इस्तेमाल होता है, इसमें ये देखना था की किसी प्रोजेक्ट को पुरा करने वास्तविक रूप में कितना समय लगेगा, इसके लिए प्रोजेक्ट का पूरा आंकडा होना चाहिए और हर काम को कौन आदमी करेगा और उसकी योग्यता क्या है ये सब होना चाहिए, इसमें बहुत सारी बातें ध्यान में रखी गई जैसे मान लीजिये फूटबाल या क्रिकेट का वर्ल्ड कप चालु हो गया तो फिर उसका क्या असर होगा? इस काम के विशेषज्ञ स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रेमंड लेविट के विडियो लेक्चर को खूब सुना... लेक्चर सुनता और विद्यार्थियों को पढाता भी :-) अपने से बड़ों को पढाना, कई बार अपने गाइड को भी पढाता :-) इससे अच्छा और क्या हो सकता है !
3. एक और रोचक प्रोजेक्ट के बारे में आपको बता दूँ... मान लीजिये की आप किसी भीड़-भाड़ वाले स्टेशन पर खड़े हैं और आग लग जाए तो आप क्या करेंगे? भागेंगे... किस दिशा में भागेंगे? निकास की तरफ़... आकस्मिक भय (पैनिक) की हालत में अगर सब भागने लगें तो क्या हो? स्टेशन तो ये सोच के बनाया नहीं गया था... अब मान लीजिये की इस हिसाब से स्टेशन के भवन में बदलाव लाना है, तो कैसे लाया जाय ताकि पूरा भवन गिराना न पड़े... इसके लिए गणित को याद किया गया और फिर कम्प्यूटर साइंस को... और बन गया ये प्रोडक्ट, इस काम करना भी खूब रोचक रहा और हमने ज्यूरिक रेलवे स्टेशन को ओप्टिमाइज किया.
4. आपने थ्री डाइमेन्सन तो सुना ही होगा पर कभी फ़ोर डाइमेन्सन सुना है? जी हाँ एक समय भी जोड़ दीजिये... फ़ोर डाइमेन्सन में किसी प्रोजेक्ट का ओप्टिमाइजेसन करने का काम जेनेटिक अल्गोरिथम से... छोडिये नाम से ही भारी हो रहा है... इस काम को करने में भी बहुत मज़ा आया.
5. अब चलिए थोड़ा एन्सुरेंस एजेंट और लोन वसूली को आराम दिया जाय, जी हाँ ये पता करना की कौन आदमी लोन और प्रीमियम सही टाइम पर देगा और कौन देर से करेगा... उस हिसाब से उसी एरिया में एजेंटों को भेजा जाय तो कितनी अच्छी बात होगी... और पैसे की बचत भी होगी, इस काम को करने के लिए कई मॉडल हैं पर ये समय के साथ बदलते नहीं ! मान लीजिये किसी की माली हालत बीच में ख़राब हो गई तो? इसलिए हमने हर कलेक्शन के बाद मॉडल में सुधार किया (यह बेसियन इकोनोमेट्रिक्स का एक प्रयोग था, पहले ऐसे कम्प्यूटर नहीं थे जो इतना बड़ा-बड़ा हिसाब कर सकें इसलिए पहले इस विधा का उपयोग नहीं हो पाता था), आप इसे डायनामिक मॉडल कह सकते हैं।
6. थोड़ा तेल-साबुन बेचने का भी प्रयास किया, कनाडा के एक मुहल्ले से आंकडा लाया गया और अब पता ये करना था की किस तरह की आय वाली जगह पर कैसा डिटर्जेंट बेचा जाय और कौन सा केचप... सीधी सी बात है समाज का जो वर्ग निरमा खरीदता है वो सर्फ़ एक्सेल नहीं... (इसे मार्केट सेगमेंटेशन भी कहा जाता है, इस पर भी जो स्थायी मॉडल हैं उन पर कुछ सुधार का काम किया).
7. अब सब बेच लिया तो कुछ खरीदने की बात भी हो जाय... तो भारत में गाड़ियों की विक्री किस तरह बढ़ी है, कितना बढेगी... इस पर भी कुछ दिन काम किया...
8. और अंत में मेरी थीसिस... जो थोडी ज्यादा गणितीय है इसीलिए इतना बता दूँ की यह नेटवर्क फ्लो पर आधारित था... नेटवर्क किसी भी चीज़ का हो सकता है... मान लीजिये रेल या सड़क का पूरा एक नेटवर्क है... एक से दूसरी जगह समान भेजना है... इसको कैसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह भेजना है ताकि खर्च और समय बचे... ज्यादा से ज्यादा सामान भेजा जा सके, इस काम के लिए कई अल्गोरिथम है... पर हमारा काम इस बात का था की अगर कम्प्यूटर इस सवाल के लिए एक घंटे लेता है तो कैसे इसे कम समय में किया जाय... हमने नया अल्गोरिथम तो नहीं दिया. हाँ ऐसे अल्गोरिथम अनुमान के साथ चालु किए जाते हैं और सही उत्तर की जगह जाकर जाते हैं, हमारे काम से ऐसे अनुमान लगाए जा सकते हैं जो कई बार ९०% तक कम समय में सवाल हल कर देते हैं. ये वैसे ही है जैसे मान लीजिये धुंध में आपको दिखाई नहीं दे रहा है और आपको पहाड़ की ऊंचाई पर चढ़ना है... आप अपने हिसाब से एक ऊँचे जगह पर पहुच कर यात्रा प्रारम्भ करेंगे और जो सबसे ऊँचा दिखाई देगा वहां तक पहुचते जायंगे... इस प्रकार कुछ देर के बाद आप अपने आपको सबसे ऊँची जगह पर पायेंगे... अब आप पहले से ही ऊंचाई पर हैं तो उसी समय पता लग जायेगा की इससे ऊपर कुछ नहीं है... हम भी ऐसे ही ऊँची जगह का काफ़ी हद तक (८०% स्थितियों में) पता लगाने में सफल रहे. चलिए बहुत हो गया... अगले पोस्ट में जैसा की मैंने कहा सबसे रोचक सवाल पर चर्चा होगी... उस पर बनी एक डॉक्युमेंट्री भी बहुत प्रसिद्द हुई... और भी छोटे-मोटे प्रोजेक्ट हैं, पर पोस्ट वैसे ही लम्बी होती जा रही है... इसलिए बस इतना ही !
अगर गलती से किसी के बारे में और जानने की इच्छा हो तो जरूर पूछें.
इसे एक ओवरव्यू की तरह ही लिया जाय... इस सप्ताह मुंबई जाना पड़ा और भी कई सारे काम आ गए, इस श्रृंखला को जारी रखने के लिए ये पोस्ट लिख डाली. इन विषयों पर विस्तृत चर्चा अलग-अलग पोस्ट में की जायेगी. (यह फैसला द्विवेदीजी और मसिजीवी जी की टिपण्णी को ध्यान में रखते हुए लिखा गया है)
~Abhishek Ojha~
1. बात की शुरुआत राजनीति और उर्जा से... तेल की कीमतों और न्यूक्लियर डील से तो आप सब परिचित हैं ही, अब एक और विकल्प भी आप अखबारों में देखते ही होंगे ईरान-पकिस्तान पाइपलाइन की... ईरान से पाकिस्तान होते हुए भारत तक गैस लाने के लिए पाइपलाइन बनाने की. अब गणित लगाना था की कौन-कौन से विकल्प हैं भारत के पास... कौन सा विकल्प महंगा पड़ेगा और कितना... चलिए अब इस प्राकृतिक गैस के बारे में भी जान लेते हैं... दो मुख्य तरीके होते हैं इसे एक जगह से दुसरे जगह ले जाने के, पहला गैस पाइपलाइन और दूसरा टैंकरयुक्त पानी के जहाजों से. तो फिर पाकिस्तान को बीच में लाने की जरुरत ही क्या है? टैंकर से ही ले आते हैं... पर गणित कुछ और कहता है... जब हम खर्च की बात करते हैं तो पता चलता है की एक ख़ास दुरी तक से गैस लाने में पाइपलाइन की गैस बहुत सस्ती पड़ती है वहीँ उस दूरी से ज्यादा दूरी से गैस लानी हो तो टैकर सस्ते पड़ते हैं. खर्चे कई तरह के होते हैं, कुछ खर्चे दोनों तरीकों में होते हैं जैसे गैस को निकलना और उसे उपयोगी बनाना, जमीन या समुद्र से निकलने वाली गैस में कई सारे अवांछनीय पदार्थ भी होते हैं... कई बार इन अवांछनीय पदार्थों को जमीन के अन्दर वापस डालना पड़ता है... इसे वापस डालते समय भी इससे प्रेसर बनाया जाता है ताकि और गैस जमीन के अन्दर से आसानी से निकाली जा सके. टैंकर का इस्तेमाल करना हो तो गैस को पहले द्रव में परिवर्तित करना पड़ता है, उसके बाद टैंकरों का खर्च अलग, तो क्या पाइपलाइन एक बार बना दी तो गैस भेजते रहो? नहीं ऐसा नहीं है... पाइपलाइन में उपयुक्त प्रेशर बनाए रखने के लिए थोडी-थोडी दूर पर कम्प्रेसर लगाने पड़ते हैं, और उनका खर्च अलग से, उनके लिए उर्जा भी अलग से... दोनों ही तरीकों में मेंटेनेंस जैसे खर्च होते ही हैं. जैसे दूरी के हिसाब से टैंकर बेहतर हो जाता है वैसे ही कांट्रेक्ट की अवधि के हिसाब से भी होता है... अगर लम्बी अवधि का कांट्रेक्ट हो तो पाइपलाइन सस्ता पड़ता है और कम अवधि का हो तो द्रवित प्राकृतिक गैस के टैंकर सस्ते होते हैं. पाइपलाइन भी जमीन के अलावा समुद्र में भी हो सकती है... उसके लिए टेक्नोलॉजी और खर्च दोनों चाहिए. इस तरह इन सारी चीज़ों का ध्यान रखते हुए हमने मॉडल बनाया और फिर ग्राफ्स और अन्तिम कीमत निकलने के लिए सूत्र. पाइपलाइन वाला फार्मूला थोड़ा जटिल हो गया क्योंकि कम्प्रेसर के लिए मेकेनिकल इंजीनियरिंग की मदद लेनी पड़ी.
2. अब बात करते हैं प्रोसेस मोडेलिंग की... ये काम बहुत रोचक था इसमें साधारण ओपरेशन रिसर्च से लेकर मनोविज्ञान तक का इस्तेमाल होता है, इसमें ये देखना था की किसी प्रोजेक्ट को पुरा करने वास्तविक रूप में कितना समय लगेगा, इसके लिए प्रोजेक्ट का पूरा आंकडा होना चाहिए और हर काम को कौन आदमी करेगा और उसकी योग्यता क्या है ये सब होना चाहिए, इसमें बहुत सारी बातें ध्यान में रखी गई जैसे मान लीजिये फूटबाल या क्रिकेट का वर्ल्ड कप चालु हो गया तो फिर उसका क्या असर होगा? इस काम के विशेषज्ञ स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रेमंड लेविट के विडियो लेक्चर को खूब सुना... लेक्चर सुनता और विद्यार्थियों को पढाता भी :-) अपने से बड़ों को पढाना, कई बार अपने गाइड को भी पढाता :-) इससे अच्छा और क्या हो सकता है !
3. एक और रोचक प्रोजेक्ट के बारे में आपको बता दूँ... मान लीजिये की आप किसी भीड़-भाड़ वाले स्टेशन पर खड़े हैं और आग लग जाए तो आप क्या करेंगे? भागेंगे... किस दिशा में भागेंगे? निकास की तरफ़... आकस्मिक भय (पैनिक) की हालत में अगर सब भागने लगें तो क्या हो? स्टेशन तो ये सोच के बनाया नहीं गया था... अब मान लीजिये की इस हिसाब से स्टेशन के भवन में बदलाव लाना है, तो कैसे लाया जाय ताकि पूरा भवन गिराना न पड़े... इसके लिए गणित को याद किया गया और फिर कम्प्यूटर साइंस को... और बन गया ये प्रोडक्ट, इस काम करना भी खूब रोचक रहा और हमने ज्यूरिक रेलवे स्टेशन को ओप्टिमाइज किया.
4. आपने थ्री डाइमेन्सन तो सुना ही होगा पर कभी फ़ोर डाइमेन्सन सुना है? जी हाँ एक समय भी जोड़ दीजिये... फ़ोर डाइमेन्सन में किसी प्रोजेक्ट का ओप्टिमाइजेसन करने का काम जेनेटिक अल्गोरिथम से... छोडिये नाम से ही भारी हो रहा है... इस काम को करने में भी बहुत मज़ा आया.
5. अब चलिए थोड़ा एन्सुरेंस एजेंट और लोन वसूली को आराम दिया जाय, जी हाँ ये पता करना की कौन आदमी लोन और प्रीमियम सही टाइम पर देगा और कौन देर से करेगा... उस हिसाब से उसी एरिया में एजेंटों को भेजा जाय तो कितनी अच्छी बात होगी... और पैसे की बचत भी होगी, इस काम को करने के लिए कई मॉडल हैं पर ये समय के साथ बदलते नहीं ! मान लीजिये किसी की माली हालत बीच में ख़राब हो गई तो? इसलिए हमने हर कलेक्शन के बाद मॉडल में सुधार किया (यह बेसियन इकोनोमेट्रिक्स का एक प्रयोग था, पहले ऐसे कम्प्यूटर नहीं थे जो इतना बड़ा-बड़ा हिसाब कर सकें इसलिए पहले इस विधा का उपयोग नहीं हो पाता था), आप इसे डायनामिक मॉडल कह सकते हैं।
6. थोड़ा तेल-साबुन बेचने का भी प्रयास किया, कनाडा के एक मुहल्ले से आंकडा लाया गया और अब पता ये करना था की किस तरह की आय वाली जगह पर कैसा डिटर्जेंट बेचा जाय और कौन सा केचप... सीधी सी बात है समाज का जो वर्ग निरमा खरीदता है वो सर्फ़ एक्सेल नहीं... (इसे मार्केट सेगमेंटेशन भी कहा जाता है, इस पर भी जो स्थायी मॉडल हैं उन पर कुछ सुधार का काम किया).
7. अब सब बेच लिया तो कुछ खरीदने की बात भी हो जाय... तो भारत में गाड़ियों की विक्री किस तरह बढ़ी है, कितना बढेगी... इस पर भी कुछ दिन काम किया...
8. और अंत में मेरी थीसिस... जो थोडी ज्यादा गणितीय है इसीलिए इतना बता दूँ की यह नेटवर्क फ्लो पर आधारित था... नेटवर्क किसी भी चीज़ का हो सकता है... मान लीजिये रेल या सड़क का पूरा एक नेटवर्क है... एक से दूसरी जगह समान भेजना है... इसको कैसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह भेजना है ताकि खर्च और समय बचे... ज्यादा से ज्यादा सामान भेजा जा सके, इस काम के लिए कई अल्गोरिथम है... पर हमारा काम इस बात का था की अगर कम्प्यूटर इस सवाल के लिए एक घंटे लेता है तो कैसे इसे कम समय में किया जाय... हमने नया अल्गोरिथम तो नहीं दिया. हाँ ऐसे अल्गोरिथम अनुमान के साथ चालु किए जाते हैं और सही उत्तर की जगह जाकर जाते हैं, हमारे काम से ऐसे अनुमान लगाए जा सकते हैं जो कई बार ९०% तक कम समय में सवाल हल कर देते हैं. ये वैसे ही है जैसे मान लीजिये धुंध में आपको दिखाई नहीं दे रहा है और आपको पहाड़ की ऊंचाई पर चढ़ना है... आप अपने हिसाब से एक ऊँचे जगह पर पहुच कर यात्रा प्रारम्भ करेंगे और जो सबसे ऊँचा दिखाई देगा वहां तक पहुचते जायंगे... इस प्रकार कुछ देर के बाद आप अपने आपको सबसे ऊँची जगह पर पायेंगे... अब आप पहले से ही ऊंचाई पर हैं तो उसी समय पता लग जायेगा की इससे ऊपर कुछ नहीं है... हम भी ऐसे ही ऊँची जगह का काफ़ी हद तक (८०% स्थितियों में) पता लगाने में सफल रहे. चलिए बहुत हो गया... अगले पोस्ट में जैसा की मैंने कहा सबसे रोचक सवाल पर चर्चा होगी... उस पर बनी एक डॉक्युमेंट्री भी बहुत प्रसिद्द हुई... और भी छोटे-मोटे प्रोजेक्ट हैं, पर पोस्ट वैसे ही लम्बी होती जा रही है... इसलिए बस इतना ही !
अलग अलग प्रोजेक्ट इन जगहों पर किए गए..
1. IIM Bangalore, December 2004
2. i4Ds, Switzerland, May-July 2006
3. i4Ds, Switzerland, May-July 2005 (Known as aec-ii at that time)
4. i4Ds, Switzerland, May-July 2006
5. IIM Bangalore, December 2005
6. IIM Bangalore, December 2005
7. IIT Kanpur, May-July 2004
8. IIT Kanpur, Aug 2006-May 2007
अगर गलती से किसी के बारे में और जानने की इच्छा हो तो जरूर पूछें.
इसे एक ओवरव्यू की तरह ही लिया जाय... इस सप्ताह मुंबई जाना पड़ा और भी कई सारे काम आ गए, इस श्रृंखला को जारी रखने के लिए ये पोस्ट लिख डाली. इन विषयों पर विस्तृत चर्चा अलग-अलग पोस्ट में की जायेगी. (यह फैसला द्विवेदीजी और मसिजीवी जी की टिपण्णी को ध्यान में रखते हुए लिखा गया है)
~Abhishek Ojha~
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कुछ बातें
Tuesday, July 1, 2008
गणित ने बचाई जान (बातें गणित की भाग... IV)
आज बात ऐसी... जिसमें गणित ने एक व्यक्ति की जान बचाई। वो भी किसी साधारण नहीं, ऐसे व्यक्ति की जिसे आगे चलकर नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया. जी हाँ आप को गणित से डर लगता है वो तो ठीक है पर आज ये प्रसंग सुन लीजिये, इसके बाद शायद आप गणित की महत्ता तो मानेंगे ही.
बात है रुसी क्रांति के समय की... सोवियत रूस के गणितीय भौतिकी (Mathematical Physics) के विद्वान इगोर टैम (Igor Tamm) को दक्षिणी उक्रेन के ओडेसा के समीप एक गाँव में साम्यवाद विरोधी (Anti-Communist) गिरोह ने धर दबोचा. उन्हें उक्रेन विरोधी साम्यवादी समझकर वो उन्हें अपने सरगना के पास ले गए...
सरदार ने पूछा: 'जीविका चलाने के लिए क्या करते हो?'
'जी, गणितज्ञ हूँ... !' [ बेचारे ठहरे गणित पढने-पढाने वाले... धर्मेन्द्र तो थे नहीं कि सरदार का खून ही पी जाते :)]
'हम्म...' [अगर गब्बर होता तो: साम्भा की तरफ़ देखकर सोचता... साम्भा की जगह इसी को रख लेते हैं हमारा काम करेगा, साम्भा आजकल बहुत घपला करता है आदमी और गोली गिनने में :-)]
पर कमाल की बात ये थी की ये सरदार पढ़ा-लिखा था और वो भी गणित जानता था.
सरदार बोला: 'ठीक है... किसी फलन (function) के टेलर श्रेणी (Taylor Series) के n स्थानों तक अनुमान लगाने में जो त्रुटी होगी, वो बता दो तो तुम्हे छोड़ दिया जायेगा नहीं तो तुम्हे गोली मार दी जायेगी'.
टैम साहब ने कांपती उंगुलियों से जमीन की धुल में त्रुटी निकाली, सरदार ने उत्तर देखा और कहा की इसे जाने दो.
[मोगैम्बो खुश हुआ !, और सरदार का वादा था तो मुकर जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता]
सन १९५८ में टैम साहब को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया... उन्हें जीवन भर उस दस्यु-सरगना का पता तो नहीं चल पाया... पर छात्रो को गणित की उपयोगिता बताने के लिए ये कहानी जरूर अमर हो गई.
चित्र साभार: नोबेल पुरस्कार वेबसाईट
ये कहानी मेरे मित्र और ऑफिस में सहकर्मी अजित बुरड ने मेरी गणित वाली श्रृंखला पढने के बाद भेजी, मैंने अनुवाद करके पोस्ट ठेल दिया. इसके अलावा गणित की शुद्धता वाली पोस्ट पर ये चुटकुला भी उन्होंने भेजा है और अपने ब्लॉग पर भी डाला है. आप भी देखिये.
अजित कम्प्यूटर साइंटिस्ट हैं, और ज्यादातर टेक्नीकल चीज़ों पर लिखते हैं उनकी वेबसाइट और अंग्रेजी में ब्लॉग आप यहाँ देख सकते हैं गणित में भी अच्छी रूचि रखते हैं. हाँ एक और बात अगर आप कोटा या जयपुर से हैं तो आज से ठीक ५ साल पहले यानी २००३ में आपने उनकी तस्वीर अखबार में देखी होंगी... कारण IIT की संयुक्त प्रवेश परीक्षा २००३ में टॉप १० में से एक थे, आशा है इस जानकारी के लिए वो नाराज नहीं होंगे ... बिना उनकी इजाजत के ही लिख रहा हूँ, अगर उनको आपत्ति होगी तो हटा दी जायेगी तब तक आपने पढ़ लिया तो ठीक :-)
इस बीच दिनेशराय द्विवेदीजी की एक हौसला बढाती हुई e-चिट्ठी मिली, बहुत आभार उनका. मसिजीवीजी ने भी ये पोस्ट ठेल डाली उनका भी आभार. इस सप्ताह अनुप्रयुक्त गणित के कुछ उदहारण लिखने वाला था अपने किए कुछ अलग-अलग कामों में से... वो अगले पोस्ट में. समयाभाव के इस सप्ताह के लिए बस इतना ही.
अगर गलती से टेलर श्रेणी में त्रुटी अनुमान जानने की इच्छा हो तो यहाँ देख लें. :-)
~Abhishek Ojha~
बात है रुसी क्रांति के समय की... सोवियत रूस के गणितीय भौतिकी (Mathematical Physics) के विद्वान इगोर टैम (Igor Tamm) को दक्षिणी उक्रेन के ओडेसा के समीप एक गाँव में साम्यवाद विरोधी (Anti-Communist) गिरोह ने धर दबोचा. उन्हें उक्रेन विरोधी साम्यवादी समझकर वो उन्हें अपने सरगना के पास ले गए...
सरदार ने पूछा: 'जीविका चलाने के लिए क्या करते हो?'
'जी, गणितज्ञ हूँ... !' [ बेचारे ठहरे गणित पढने-पढाने वाले... धर्मेन्द्र तो थे नहीं कि सरदार का खून ही पी जाते :)]
'हम्म...' [अगर गब्बर होता तो: साम्भा की तरफ़ देखकर सोचता... साम्भा की जगह इसी को रख लेते हैं हमारा काम करेगा, साम्भा आजकल बहुत घपला करता है आदमी और गोली गिनने में :-)]
पर कमाल की बात ये थी की ये सरदार पढ़ा-लिखा था और वो भी गणित जानता था.
सरदार बोला: 'ठीक है... किसी फलन (function) के टेलर श्रेणी (Taylor Series) के n स्थानों तक अनुमान लगाने में जो त्रुटी होगी, वो बता दो तो तुम्हे छोड़ दिया जायेगा नहीं तो तुम्हे गोली मार दी जायेगी'.
टैम साहब ने कांपती उंगुलियों से जमीन की धुल में त्रुटी निकाली, सरदार ने उत्तर देखा और कहा की इसे जाने दो.
[मोगैम्बो खुश हुआ !, और सरदार का वादा था तो मुकर जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता]
सन १९५८ में टैम साहब को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया... उन्हें जीवन भर उस दस्यु-सरगना का पता तो नहीं चल पाया... पर छात्रो को गणित की उपयोगिता बताने के लिए ये कहानी जरूर अमर हो गई.
चित्र साभार: नोबेल पुरस्कार वेबसाईट
ये कहानी मेरे मित्र और ऑफिस में सहकर्मी अजित बुरड ने मेरी गणित वाली श्रृंखला पढने के बाद भेजी, मैंने अनुवाद करके पोस्ट ठेल दिया. इसके अलावा गणित की शुद्धता वाली पोस्ट पर ये चुटकुला भी उन्होंने भेजा है और अपने ब्लॉग पर भी डाला है. आप भी देखिये.
अजित कम्प्यूटर साइंटिस्ट हैं, और ज्यादातर टेक्नीकल चीज़ों पर लिखते हैं उनकी वेबसाइट और अंग्रेजी में ब्लॉग आप यहाँ देख सकते हैं गणित में भी अच्छी रूचि रखते हैं. हाँ एक और बात अगर आप कोटा या जयपुर से हैं तो आज से ठीक ५ साल पहले यानी २००३ में आपने उनकी तस्वीर अखबार में देखी होंगी... कारण IIT की संयुक्त प्रवेश परीक्षा २००३ में टॉप १० में से एक थे, आशा है इस जानकारी के लिए वो नाराज नहीं होंगे ... बिना उनकी इजाजत के ही लिख रहा हूँ, अगर उनको आपत्ति होगी तो हटा दी जायेगी तब तक आपने पढ़ लिया तो ठीक :-)
इस बीच दिनेशराय द्विवेदीजी की एक हौसला बढाती हुई e-चिट्ठी मिली, बहुत आभार उनका. मसिजीवीजी ने भी ये पोस्ट ठेल डाली उनका भी आभार. इस सप्ताह अनुप्रयुक्त गणित के कुछ उदहारण लिखने वाला था अपने किए कुछ अलग-अलग कामों में से... वो अगले पोस्ट में. समयाभाव के इस सप्ताह के लिए बस इतना ही.
अगर गलती से टेलर श्रेणी में त्रुटी अनुमान जानने की इच्छा हो तो यहाँ देख लें. :-)
~Abhishek Ojha~
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