Thursday, July 10, 2008

गणित के कुछ वास्तविक प्रयोग (बातें गणित की भाग... V)

आज गणित के कुछ ऐसे प्रयोग जिनसे मैं ख़ुद जुडा हूँ, जी हाँ कुछ ऐसे प्रयोग जिनपर मैंने काम किया... अर्थशास्त्र, मार्केटिंग, मनोविज्ञान और इंजीनियरिंग जैसे कुछ क्षेत्रों से बातें होगी, फुटबॉल और क्रिकेट जैसे खेल आपको पसंद हैं तो उनका भी जिक्र भी आ जायेगा और अगर आपको लगता है की मैच देखना समय की बर्बादी है तो वो भी जोड़ लेंगे... कहीं आपको ऐसा तो नहीं लग रहा है की ये सब गणित में कहाँ से आ गया, अब वास्तविक प्रयोग है तो वास्तविकता ही ज्यादा होगी ना ! अगर आप इससे आगे नहीं पढ़ रहे तो आपको बताता चलूँ की जल्दी ही गणित के सबसे रोचक सवाल के इतिहास और उससे जुड़े रोचक तथ्यों पर अगली पोस्ट आने वाली है (अगर ये पोस्ट दो भागों में नहीं बटी तो) पर आगे पढने से डरने की जरुरत नहीं है... सब कुछ समझ में आने की गारंटी मेरी !

1. बात की शुरुआत राजनीति और उर्जा से... तेल की कीमतों और न्यूक्लियर डील से तो आप सब परिचित हैं ही, अब एक और विकल्प भी आप अखबारों में देखते ही होंगे ईरान-पकिस्तान पाइपलाइन की... ईरान से पाकिस्तान होते हुए भारत तक गैस लाने के लिए पाइपलाइन बनाने की. अब गणित लगाना था की कौन-कौन से विकल्प हैं भारत के पास... कौन सा विकल्प महंगा पड़ेगा और कितना... चलिए अब इस प्राकृतिक गैस के बारे में भी जान लेते हैं... दो मुख्य तरीके होते हैं इसे एक जगह से दुसरे जगह ले जाने के, पहला गैस पाइपलाइन और दूसरा टैंकरयुक्त पानी के जहाजों से. तो फिर पाकिस्तान को बीच में लाने की जरुरत ही क्या है? टैंकर से ही ले आते हैं... पर गणित कुछ और कहता है... जब हम खर्च की बात करते हैं तो पता चलता है की एक ख़ास दुरी तक से गैस लाने में पाइपलाइन की गैस बहुत सस्ती पड़ती है वहीँ उस दूरी से ज्यादा दूरी से गैस लानी हो तो टैकर सस्ते पड़ते हैं. खर्चे कई तरह के होते हैं, कुछ खर्चे दोनों तरीकों में होते हैं जैसे गैस को निकलना और उसे उपयोगी बनाना, जमीन या समुद्र से निकलने वाली गैस में कई सारे अवांछनीय पदार्थ भी होते हैं... कई बार इन अवांछनीय पदार्थों को जमीन के अन्दर वापस डालना पड़ता है... इसे वापस डालते समय भी इससे प्रेसर बनाया जाता है ताकि और गैस जमीन के अन्दर से आसानी से निकाली जा सके. टैंकर का इस्तेमाल करना हो तो गैस को पहले द्रव में परिवर्तित करना पड़ता है, उसके बाद टैंकरों का खर्च अलग, तो क्या पाइपलाइन एक बार बना दी तो गैस भेजते रहो? नहीं ऐसा नहीं है... पाइपलाइन में उपयुक्त प्रेशर बनाए रखने के लिए थोडी-थोडी दूर पर कम्प्रेसर लगाने पड़ते हैं, और उनका खर्च अलग से, उनके लिए उर्जा भी अलग से... दोनों ही तरीकों में मेंटेनेंस जैसे खर्च होते ही हैं. जैसे दूरी के हिसाब से टैंकर बेहतर हो जाता है वैसे ही कांट्रेक्ट की अवधि के हिसाब से भी होता है... अगर लम्बी अवधि का कांट्रेक्ट हो तो पाइपलाइन सस्ता पड़ता है और कम अवधि का हो तो द्रवित प्राकृतिक गैस के टैंकर सस्ते होते हैं. पाइपलाइन भी जमीन के अलावा समुद्र में भी हो सकती है... उसके लिए टेक्नोलॉजी और खर्च दोनों चाहिए. इस तरह इन सारी चीज़ों का ध्यान रखते हुए हमने मॉडल बनाया और फिर ग्राफ्स और अन्तिम कीमत निकलने के लिए सूत्र. पाइपलाइन वाला फार्मूला थोड़ा जटिल हो गया क्योंकि कम्प्रेसर के लिए मेकेनिकल इंजीनियरिंग की मदद लेनी पड़ी.

2. अब बात करते हैं प्रोसेस मोडेलिंग की... ये काम बहुत रोचक था इसमें साधारण ओपरेशन रिसर्च से लेकर मनोविज्ञान तक का इस्तेमाल होता है, इसमें ये देखना था की किसी प्रोजेक्ट को पुरा करने वास्तविक रूप में कितना समय लगेगा, इसके लिए प्रोजेक्ट का पूरा आंकडा होना चाहिए और हर काम को कौन आदमी करेगा और उसकी योग्यता क्या है ये सब होना चाहिए, इसमें बहुत सारी बातें ध्यान में रखी गई जैसे मान लीजिये फूटबाल या क्रिकेट का वर्ल्ड कप चालु हो गया तो फिर उसका क्या असर होगा? इस काम के विशेषज्ञ स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रेमंड लेविट के विडियो लेक्चर को खूब सुना... लेक्चर सुनता और विद्यार्थियों को पढाता भी :-) अपने से बड़ों को पढाना, कई बार अपने गाइड को भी पढाता :-) इससे अच्छा और क्या हो सकता है !

3. एक और रोचक प्रोजेक्ट के बारे में आपको बता दूँ... मान लीजिये की आप किसी भीड़-भाड़ वाले स्टेशन पर खड़े हैं और आग लग जाए तो आप क्या करेंगे? भागेंगे... किस दिशा में भागेंगे? निकास की तरफ़... आकस्मिक भय (पैनिक) की हालत में अगर सब भागने लगें तो क्या हो? स्टेशन तो ये सोच के बनाया नहीं गया था... अब मान लीजिये की इस हिसाब से स्टेशन के भवन में बदलाव लाना है, तो कैसे लाया जाय ताकि पूरा भवन गिराना न पड़े... इसके लिए गणित को याद किया गया और फिर कम्प्यूटर साइंस को... और बन गया ये प्रोडक्ट, इस काम करना भी खूब रोचक रहा और हमने ज्यूरिक रेलवे स्टेशन को ओप्टिमाइज किया.

4. आपने थ्री डाइमेन्सन तो सुना ही होगा पर कभी फ़ोर डाइमेन्सन सुना है? जी हाँ एक समय भी जोड़ दीजिये... फ़ोर डाइमेन्सन में किसी प्रोजेक्ट का ओप्टिमाइजेसन करने का काम जेनेटिक अल्गोरिथम से... छोडिये नाम से ही भारी हो रहा है... इस काम को करने में भी बहुत मज़ा आया.

5. अब चलिए थोड़ा एन्सुरेंस एजेंट और लोन वसूली को आराम दिया जाय, जी हाँ ये पता करना की कौन आदमी लोन और प्रीमियम सही टाइम पर देगा और कौन देर से करेगा... उस हिसाब से उसी एरिया में एजेंटों को भेजा जाय तो कितनी अच्छी बात होगी... और पैसे की बचत भी होगी, इस काम को करने के लिए कई मॉडल हैं पर ये समय के साथ बदलते नहीं ! मान लीजिये किसी की माली हालत बीच में ख़राब हो गई तो? इसलिए हमने हर कलेक्शन के बाद मॉडल में सुधार किया (यह बेसियन इकोनोमेट्रिक्स का एक प्रयोग था, पहले ऐसे कम्प्यूटर नहीं थे जो इतना बड़ा-बड़ा हिसाब कर सकें इसलिए पहले इस विधा का उपयोग नहीं हो पाता था), आप इसे डायनामिक मॉडल कह सकते हैं।

6. थोड़ा तेल-साबुन बेचने का भी प्रयास किया, कनाडा के एक मुहल्ले से आंकडा लाया गया और अब पता ये करना था की किस तरह की आय वाली जगह पर कैसा डिटर्जेंट बेचा जाय और कौन सा केचप... सीधी सी बात है समाज का जो वर्ग निरमा खरीदता है वो सर्फ़ एक्सेल नहीं... (इसे मार्केट सेगमेंटेशन भी कहा जाता है, इस पर भी जो स्थायी मॉडल हैं उन पर कुछ सुधार का काम किया).

7. अब सब बेच लिया तो कुछ खरीदने की बात भी हो जाय... तो भारत में गाड़ियों की विक्री किस तरह बढ़ी है, कितना बढेगी... इस पर भी कुछ दिन काम किया...

8. और अंत में मेरी थीसिस... जो थोडी ज्यादा गणितीय है इसीलिए इतना बता दूँ की यह नेटवर्क फ्लो पर आधारित था... नेटवर्क किसी भी चीज़ का हो सकता है... मान लीजिये रेल या सड़क का पूरा एक नेटवर्क है... एक से दूसरी जगह समान भेजना है... इसको कैसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह भेजना है ताकि खर्च और समय बचे... ज्यादा से ज्यादा सामान भेजा जा सके, इस काम के लिए कई अल्गोरिथम है... पर हमारा काम इस बात का था की अगर कम्प्यूटर इस सवाल के लिए एक घंटे लेता है तो कैसे इसे कम समय में किया जाय... हमने नया अल्गोरिथम तो नहीं दिया. हाँ ऐसे अल्गोरिथम अनुमान के साथ चालु किए जाते हैं और सही उत्तर की जगह जाकर जाते हैं, हमारे काम से ऐसे अनुमान लगाए जा सकते हैं जो कई बार ९०% तक कम समय में सवाल हल कर देते हैं. ये वैसे ही है जैसे मान लीजिये धुंध में आपको दिखाई नहीं दे रहा है और आपको पहाड़ की ऊंचाई पर चढ़ना है... आप अपने हिसाब से एक ऊँचे जगह पर पहुच कर यात्रा प्रारम्भ करेंगे और जो सबसे ऊँचा दिखाई देगा वहां तक पहुचते जायंगे... इस प्रकार कुछ देर के बाद आप अपने आपको सबसे ऊँची जगह पर पायेंगे... अब आप पहले से ही ऊंचाई पर हैं तो उसी समय पता लग जायेगा की इससे ऊपर कुछ नहीं है... हम भी ऐसे ही ऊँची जगह का काफ़ी हद तक (८०% स्थितियों में) पता लगाने में सफल रहे. चलिए बहुत हो गया... अगले पोस्ट में जैसा की मैंने कहा सबसे रोचक सवाल पर चर्चा होगी... उस पर बनी एक डॉक्युमेंट्री भी बहुत प्रसिद्द हुई... और भी छोटे-मोटे प्रोजेक्ट हैं, पर पोस्ट वैसे ही लम्बी होती जा रही है... इसलिए बस इतना ही !

अलग अलग प्रोजेक्ट इन जगहों पर किए गए..
1. IIM Bangalore, December 2004
2. i4Ds, Switzerland, May-July 2006
3. i4Ds, Switzerland, May-July 2005 (Known as aec-ii at that time)
4. i4Ds, Switzerland, May-July 2006
5. IIM Bangalore, December 2005
6. IIM Bangalore, December 2005
7. IIT Kanpur, May-July 2004
8. IIT Kanpur, Aug 2006-May 2007


अगर गलती से किसी के बारे में और जानने की इच्छा हो तो जरूर पूछें.



इसे एक ओवरव्यू की तरह ही लिया जाय... इस सप्ताह मुंबई जाना पड़ा और भी कई सारे काम आ गए, इस श्रृंखला को जारी रखने के लिए ये पोस्ट लिख डाली. इन विषयों पर विस्तृत चर्चा अलग-अलग पोस्ट में की जायेगी. (यह फैसला द्विवेदीजी और मसिजीवी जी की टिपण्णी को ध्यान में रखते हुए लिखा गया है)


~Abhishek Ojha~

10 comments:

  1. This blog could be more exciting if you can create another topic that everyone can relate on.

    ReplyDelete
  2. आलेख लम्बा तो था, लेकिन रोचक भी। वैसे इसे दो भागों में किया जा सकता था। कहीं कहीं ऐसा भी लगा जैसे ब्लागवाणी चल रही हो, संक्षेप। पूरा आलेख नहीं।

    ReplyDelete
  3. द्विवेदी जी सही कह रहे हैं आलेख लंबा हो गया, ज्यादा लिखना नहीं चाह रहा था... उस सवाल की कहानी लिखनी है अगले पोस्ट में इसलिए इसी पोस्ट में सब निपटा दिया... मुख्य-मुख्य यहाँ लिख दिया, अपनी बात थी तो फटाफट लिख गया इसलिए समय भी नहीं लगा... अगली पोस्ट छोटी-छोटी और कहानियो वाली होगी.

    ReplyDelete
  4. रोचक काम करते रहे हैं आप।
    कुछ और ब्‍यौरे रहते तो और अच्‍छा होता- ब्‍लॉगवाधी जैसी झलकियॉं हो गईं इस बात से हम भी सहमत हैं।


    कुछ और मॉडलों पर विचार करें- कैसे तय हो कि आज की सबसे अच्‍छी पोस्‍ट किसकी होगी... कौन सी पोस्‍टें पढी जाएंगी किन पर टिप्‍पणी मिलेंगी और ऐसी कितनी होंगी जिनपर टिप्‍पणी तो मिलेंगी लेकिन पढ़ी नहीं जाएंगी... मतलब ब्‍लॉगजगत का गणित :))

    ReplyDelete
  5. avishek bhaiya aap batate jayen hum padh -sun rahen hain.

    ReplyDelete
  6. अच्छा गणितीय उपयोग है। निष्कर्ष के लिये गणित सहयोगी है लेकिन ये आंकड़े जुटाना अपने में कठिन काम है।

    ReplyDelete
  7. वाह! यह शृंखला बहुत ही उपयोगी है और हिन्दी ब्लागजगत में अनूठी भी। इसे जारी रखिये।

    इसी तरह प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान के गहन पहलुओं पर भी हिन्दी में कोई बन्धु लेख लिखे तो मजा आ जाय। बाकी अपने देश में शिक्षा तो लगभग रटना-रटाना ही रह गया है। गहराई और मौलिकता का इसमें कहीं महत्व नहीं रह गया है।

    ReplyDelete
  8. bahut badhiya lekh hai ye..
    ganit me ruchi bachpan se hote huye bhi achchhe number kabhi nahi aaye.. lekin use padhna aaj bhi achchha lagta hai..

    ReplyDelete
  9. तो लोन और लॉटरीवाले भी आपकी गणित की ओर आकर्षित होने लगे। :)

    ReplyDelete
  10. aapka blog padhkar bahut he achha laga, bilkul alag hai, badhai ho , likhate rahiye ,hamare jaise logo ko jarurat hai, ganit ke kuch rochak khel bhi bataeye. thanks!

    ReplyDelete