Thursday, April 30, 2009

ब्लॉग्गिंग के खतरे !

हमारे धंधे में रिस्क या जोखिम उन चीजों में निकाला जाता है जहाँ लाभ और घाटा दोनों होता है. और दोनों में से कब कौन, कैसे और कितना हो जाएगा ये पता नहीं होता है. बिल्कुल जुए जैसी बात, और वो भी अपनी औकात से कई गुना कर्ज लेने की क्षमता के साथ जुआ खेलने वाली बात. अब युद्धिष्ठिर कर्ज ले लेकर जुआ खेल सकते तो क्या होता? कर्ज नहीं ले सकते थे तब तो क्या हाल हुआ ! खैर हमारे धंधे में लोग कहते हैं कि हम वही बता देंगे जो बताना संभव ही नहीं है. अरे क्या ख़ाक बताएँगे जब कृष्ण जैसे खतरा मैनेजर युद्धिष्ठिर को नहीं रोक पाए तो कोई और क्या खतरे बता पायेगा ! तो अगर मैं कहूं की ब्लॉग्गिंग में बस ये ही खतरे हैं और इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता तो ये एक शुद्ध झूठ के अलावा और कुछ नहीं होगा. *

विश्वयुद्ध हो या ९/११ या नागासाकी/हिरोशिमा... किसीने पहले नहीं सोचा था कि ऐसा भी हो सकता है ! खतरे जब एक बार आ जाते हैं तब हम उनके बारे में सोचना चालु करते हैं. तब हम इस बात का ध्यान रखने लगते हैं कि कोई हवाई जहाज किसी बिल्डिंग में ना घुसे पर अब क्यों कोई जहाज बिल्डिंग में घुसने लगा... अब तो कुछ और होगा ! कुछ भी... जो हम नहीं जानते ! अगर जान ही लेंगे तो फिर वो खतरा कहाँ रह पायेगा.

अब स्वाइन फ्लू ही देख लो, कभी किसी ने सोचा था क्या? सूअर तो ससुरे तब भी साँस लेते थे ! डॉट कॉम बबल में स्टॉक मार्केट डूब गए तो लोग देखने लगे की अगर फिर से डॉट कॉम बबल हुआ तो क्या होगा. अरे अब फिर से क्यों होगा वही? अब एक बार हाथ जल गया तो कोई वैसे ही आग में हाथ नहीं डालेगा. हाँ अब इंसान आग से तो सावधान हो जाता है पर पानी में डूब कर मर जाता है... बच जाता है तो अगली बार आग और पानी से बचता रहता है, फिर किसी और चीज से खतरा होता है ! उसी तरह पहले हो चुकी घटनाओं के चक्कर में लोग पड़े रहे और कर्ज लेकर जुआ खेलते रहे. और बन गया हाऊसिंग बबल और आ गया रिसेसन. अब आगे से इसका भी ध्यान रखा जाएगा और फिर कोंई नया बबल आएगा.

तो कुल मिला के मेरा कहना ये है कि मैं जो खतरे गिना रहा हूँ ये सब वैसे है जो हम देख सकते हैं ! पर असली खतरे तो वो होते हैं जो हम सोच भी नहीं सकते. और ऐसे ही खतरे ज्यादा खतरनाक होते हैं क्योंकि उनके लिए हम बिल्कुल तैयार नहीं होते. खैर जिस धंधे का खाना होता है उसको ज्यादा गाली नहीं देना चाहिए :-) और वैसे भी यहाँ बात ब्लॉग्गिंग की होनी थी तो मुड़ते हैं ब्लॉग्गिंग कि तरफ.

ब्लॉग्गिंग का तो माजरा ही कुछ और है. यहाँ तो फायदा क्या है यही नहीं मालूम (हिंदी में ऐडसेंस से कमी करने वाले और प्रोफेसनल ब्लोग्गर नहीं के बराबर है !).  वैसे ब्लॉग्गिंग कोई क्यों करता है इसे एक बार मैंने मासलो की जरूरतों के अनुक्रम (Maslow's hierarchy of needs) से जोड़ा तो था (वो भी कभी पोस्ट होगा).

बिन फायदे वाली चीज का खतरा निकलना हो तो मूल सिद्धांत (अगर फायदे बंद हो जाएँ तो क्या हो !) ही लागू नहीं होता. फिर भी बड़े खतरे हैं जी इस ब्लॉग्गिंग के. आज भूमिका ही लम्बी हो गयी.

दो-चार दिन में खतरे लेकर मैं आता हूँ :-)

~Abhishek Ojha~

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*ये ब्लॉग्गिंग में रिस्क वाली श्रृंखला का पूरा श्रेय जाता है माननीय रवि रतलामीजी को और उनकी इस टिपण्णी को (वैसे आपको पसंद ना आये और गलतियाँ-वलतियाँ हो तो उसका सारा श्रेय मेरा)

उन्होंने कहा था: ‘ध्यान रखिएगा, कोई रिस्क छूटने न पाए.’ तो सरजी आज की पोस्ट से ये बात तो साफ़ हो ही गयी होगी कि कितने रिस्क कोई गिना सकता है और कितने छुट जायेंगे :-)

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