Monday, March 8, 2010

एलिस इन वंडरलैंड और गणित ?

टीम बर्टन की जॉनी डेप अभिनीत फिल्म 'एलिस इन वंडरलैंड' रिलीज हो गयी है और मुझे इंतज़ार है इसके पुणे में रिलीज होने का. फ़िलहाल सोने के पहले इस फिल्म से जुडी न्यूयोर्क  टाइम्स  में छपे इस आलेख पर नजर पड़ गयी. 'एलिस इन वंडरलैंड' के लेखक का गणितज्ञ होना और उनके जीवन काल में हो रहे गणितalice_in_wonderland में परिवर्तनों का इस पुस्तक पर असर होने की सोच बड़ी कमाल की लगी कहाँ गणित और कहाँ एलिस इन वंडरलैंड !  दो अलग ही बातों की तुलना बड़े अच्छे ढंग से की गयी है.
नए गणित और उसके आविष्कार के इतिहास में अगर रूचि ना भी हो तो ये आलेख पढने लायक है. कैसे हम जो भी लिखते(सोचते) हैं वो कहीं न कहीं हमारे परिवेश और हमारे अब तक के जीवन तथा कार्यक्षेत्र से प्रभावित होता है. भले ही देखने में बिलकुल हमारे कार्यक्षेत्र से अलग हो पर सोच कहीं न कहीं उससे प्रभावित तो होती ही है. जिस क्षेत्र में और जिस तरीके से हम काम कर रहे होते हैं (या करना पड़ता है) धीरे-धीरे उस तरीके से सोचने लगते हैं. आप आलेख लिंक पर  पढ़कर आईये. घंटे भर लगाकर टाइप और ट्रांसलेशन का कुछ फायदा नहीं दीखता मुझे.

Algebra in Wonderland

दसवीं क्लास में एक श्लोक पढ़ा था, बाबा चाणक्य सही ही कह गए हैं:

दीपो भक्षयते थ्वान्तं काजलं च प्रसूयते.
यदन्नं भक्षयते नित्यं जायते तादृशी प्रजा.

जिस प्रकार दीपक अन्धकार को खाकर काजल को जन्म देता है उसी तरह इंसान के विचार भी वैसे ही होते हैं जिस प्रकार का अन्न वह खाता है और उसकी संतानें भी वैसी ही पैदा होती हैं.
अब यहाँ अन्न का मतलब डायरेक्ट अन्न ही तो नहीं है (विशेषज्ञ बतायेंगे कुछ)? हाँ उस जमाने में अन्न कमाने के लिए जिस तरह के काम किये जाते हो उसी काम की बात बाबा चाणक्य कर रहे थे होंगे*. मतलब जो काम करो, जैसा पढो, जैसे लोगों के साथ रहो वैसे ही विचार होंगे. अपनी सोच ऐसे ही तो बनती है. जीवन में साथ मिले/रहे लोग, घटनाएं, काम एक बड़ा प्रतिशत बनाते हैं हमारी पर्सनालिटी का.  मुझसे किसी ने कहा तुम्हें सीधे-सीधे बात करनी ही नहीं आती. एक सीधी बात समझाने के लिए ऐसे उदहारण देते हो कि बात सुलझने के वजाय उलझ ही जाती है. [वैसे ये बात इसलिए भी कही गयी होगी क्योंकि सामने वाले को कुछ सीधे-सीधे सुनना होगा मेरे मुंह से ;) जो मैं कह ना पा रहा था होऊंगा*].

*हमारे इतिहास के शिक्षक प्रागैतिहासिक काल का इतिहास पढ़ाते समय 'थे होंगे' का बहुत इस्तेमाल किया करते थे, मुझे बड़ा अच्छा लगा करता था !
आप आलेख पढने जाइए, फुर्सत मिले तो उस पर सोचियेगा, अपने से जोड़कर... मजा आएगा :)

~Abhishek Ojha~

10 comments:

  1. भाई आप अनोखे हैं। कहाँ कहाँ से ढूढ़ लाते हैं!
    हिन्दी ब्लॉगरी आप जैसों के कारण ही विविधता पर गर्व कर सकती है।
    तुस्सी ग्रेट यार !
    हॉर्मोनिक सीरीज और संगीत के स्वरों पर आधारित आप के लेख की प्रतीक्षा है। चौंकिए मत महाशय - मेरी बड़ी पुरानी फरमाइश है। कुछ कर नहीं रहे इसलिए सार्वजनिक रूप से कह रहा हूँ। ..
    वैसे ज़ाकिर अली और बड़के भैया की विज्ञान आधारित लेख देने की फरमाइशें मेरे सीने पर भी सवार हैं ..मैं हूँ कि बस ढोए जा रहा हूँ। .. कहीं आप भी मेरी तरह 'आलसी' तो नहीं ?

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  2. मार्टिन गार्डनर गणित के बारे में रोचक पुस्तकें लिखते हैं। उन्होंने 'द एनोटेटेड एलिस इन वंडरलैंड' लिखी है। मैंने इसे लगभग चार दशक पहले पढ़ा था। यह इस पुस्तक को, कुछ इसी नज़रिये से समझाती है। यदि आपने इसे नहीं पढ़ा हो तो इसे पढ़ कर देखिये।

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  3. फुर्सत मिलते ही पढ़ते हैं.

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  4. al jebr e al mokabala : हिंदी में बोला जाये तो "जबरन मुकाबला" लगता है. क्या कहते हो.

    वैसे लेख अच्छा था.

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  6. महराज ई त प्रस्तावना हुयी -असल बतिया तो छूट ही गयी !
    कुछ सार संक्षेप तो देना था न ?

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  7. aapke is lekh ke bahane mahakavi chanakya ke shlok punah yaad aa gaye waakai padhkar bahut hi achha laga.
    poonam

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  8. यहां अन्न का सीधा मतलब अन्न से ही होना चाहिये क्योंकि अन्न का सात्विक, राजसिक या तामसिक प्रवृत्तियों पर काफ़ी असर पडता है.

    आपका ब्लोग पहली बार पधा, वाकई आप बडी मेहनत करते हैं.

    गणित का और फ़ेंटेसी का सीधा संबंध है.मानसिक सतह पर गणित को साधने वाले कल्पनाओंकी ऊंची उडा़न में माहिर होते हैं. मैं भी कमोबेश अपने ऊपर से इस पर विश्वास करने लगा हूं.

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