पूजा की पोस्ट पढ़ते हुए ये लाइन मिली - I am jigsaw puzzle of collective memories, the key piece of which has been lost with mummy, forever. For all they try, no one can assemble me with all the pieces in their right place. And so I remain, a confused jumble of faces, tears, smiles, people, lost and found, roads, rain, school, college, teachers, friends...
मुझे ये पढ़ते हुए इन्कम्प्लीटनेस थियोरम की याद आई और मेरे उस 'लभ लेटर' की ये लाइन -
"फिलहाल इंकम्पलिटनेस थियोरम की तरह जिंदगी है। उस जिगसा पज़ल की तरह जिसका एक टुकड़ा खो गया है। कैसे भी सुलझाऊँ बिन उस टुकड़े के अधूरा ही रहेगा। तुम्हें पता है वो टुकड़ा क्या है? - तुम हो वो टुकड़ा !"
टिप्पणी-प्रतिटिप्पणी के बीच पूजा ने कहा -incompleteness theorem की सविस्तार व्याख्या करें, उदहारण के साथ :O
तो हम वो समझाने जा रहे हैं जो लोग सही से ज्यादा गलत समझ लेते हैं। जैसा किसी भी 'अच्छे' सिद्धांत के साथ होता है। अक्सर लोग अपने हिसाब से इन्कम्प्लीटनेस थियोरम का मतलब निकाल लेते हैं- लिखते लिखते हम भी निकाल ही लेंगे ! तो बिन पढ़े मेरी समझ को कहीं भी अपने रिक्स पर इस्तेमाल करें। हाँ रिक्स ही कहा रिस्क नहीं :)
हर औपचारिक गणितीय प्रणाली एक सोच का नतीजा होती है। विशुद्ध सोच-तर्क और कुछ नहीं ! पूरी प्रणाली कुछ स्वयंसिद्ध मान लिए गए सिद्धांतों (Axiom) पर आधारित होती है। इन स्वयंसिद्ध कथनो पर कोई सवाल नहीं उठाता, उन्हें सच मान लेते हैं बिन कुछ पूछे - स्वयंसिद्ध - अंतर्ज्ञान, आत्मा की आवाज की तरह। जैसे "किसी भी दो बिंदु को मिलकर एक रेखा बनायीं जा सकती है"। ये स्वयंसिद्ध है। हर गणितीय प्रणाली ऐसे स्वयंसिद्ध नियमों और तर्क से मिलकर ही बनती है। इनके अलावा बाहर का कुछ भी इस प्रणाली में नहीं आ सकता। इनके अलावा जो भी हो उसे सिद्ध करना पड़ता है। इनके अलावा बिना सिद्ध किये कुछ भी मान्य नहीं होता।
गणित की भाषा में प्रणाली के पूर्ण (complete) का मतलब - किसी भी कथन को सही या गलत साबित करने की क्षमता। और संगत (consistent) का मतलब - कोई भी कथन ऐसा न हो जो सही और गलत दोनों सिद्ध हो जाए !
अब कायदे से हर गणितीय प्रणाली को पूर्ण होना चाहिए। अर्थात केवल वही कथन जो सत्य है उन्हें ही साबित होना चाहिए। कोई विरोधाभास नहीं होना चाहिए। और हर कथन को सही या गलत साबित करने की क्षमता भी होनी चाहिए। पर गोडेल ने अपूर्णता प्रमेय में कहा कि .... ऐसी प्रणाली की सीमाएं हैं ! उनका पहला प्रमेय ये कहता है (मोटे तौर पर) - अंकगणित के लिए किसी भी औपचारिक गणितीय प्रणाली, जो विराधोभासो से परे हो, में ऐसे कथन होंगे जिन्हें उस प्रणाली के अंतर्गत ना तो सत्य सिद्ध किया जा सकता है ना असत्य ! अर्थात अपूर्ण। गोडेल ने कहा कि हम किसी भी प्रणाली में नए स्वयंसिद्ध जोड़कर ऐसे कथनों को सत्य या असत्य की श्रेणी में रख सकते हैं। अर्थात जो सही या गलत न पता चले वैसे कथनो को दोनों में से एक मान लें तो गणितीय प्रणाली तो पूर्ण हो जाएगी - पर ऐसा करने से फिर कुछ नए कथन बन जायेंगे जो फिर से ना सत्य ही रहेंगे ना असत्य। अर्थात अपूर्णता से निजात नहीं !
एक तरह से गोडेल ने कहा कि एक साथ सत्य और सर्वव्यापी प्रणाली नहीं हो सकती। बिन कुछ झूठ कहे हम हर सत्य को नहीं कह सकते या हमेशा कुछ ऐसा सत्य बचा रह जाएगा जिसे हम साबित नहीं कर सकते - हर कथन को साबित करना संभव नहीं ! कुछ न कुछ बचा रह जाना है। जिगसा पज़ल के एक मिसिंग टुकड़े की तरह। हम जैसे भी मिलाते जाएँ… एक टुकड़े के बिन पूर्ण आकृति नहीं बन सकती। दूसरा प्रमेय कहता है कि प्रणाली खुद अपनी असंगति सिद्ध नहीं कर सकती। पर हम बात पहले की ही करते हैं।
नियम और स्वयंसिद्धों से हमेशा कुछ कथन असिद्ध/अज्ञात (सत्य हैं या असत्य) रह जायेंगे। और अगर प्रणाली के बाहर से नए नियम और स्वयंसिद्ध कथन ले आयें तो? तो भी नए असिद्ध कथन बनते जायेंगे। कहने का मतलब अपूर्णता रहनी ही है। अर्थात हर प्रणाली में हम जितना भी जान पाते हैं उससे कहीं ज्यादा सत्य कथन होते ही हैं।
इस प्रमेय से जैसे ये कहा जाता है कि कंप्यूटर कभी इंसानों जैसे नहीं हो सकते क्यूंकि वो हमेशा एक नियत नियम और स्वयंसिद्ध कथनों पर आधारित होते हैं। जबकि हमारा दिमाग नहीं... इसलिए हम अनजाने, अप्रत्याशित सत्यों से रूबरू होते रहते हैं। दार्शनिक वैसे इस प्रमेय को इंसानी दिमाग पर भी लगाते हैं और कहते हैं कि हर एक तार्किक प्रणाली की तरह ही एक इंसान भी अपने आपको कभी पुर्णतः नहीं समझ सकता क्योंकि हम खुद के बारे में खुद की ही प्रणाली से ही तो जानते हैं। और हर प्रणाली ही अपने खुद की असंगति को सिद्ध नहीं कर सकती ! [हरी ॐ तत्सत् ! क्या क्या तो मस्त सोच गए हैं लोग !]
यहाँ ध्यान देने की बात है कि गोडेल ने ये नहीं कहना चाहा कि जो है वो गलत या बेकार है। गोडेल ने कहा कोई भी प्रणाली पूर्ण नहीं है। मेकेनिकल तरीके से नियम कितने भी तार्किक हो कुछ कमी तो रहनी ही है। और हमें गणित में (और अन्यत्र भी) अंतर्ज्ञान और निरंतर खोज को जारी रखना चाहिए। नियमों और तर्क पर आधारित प्रणाली एक मशीन ब ना सकती है... कम्प्युटर, सैटेलाइट, रॉकेट इत्यादि। विशालकाय सिस्टम जिसमें सब कुछ तार्किक हो... पर इंसान का इंट्यूशन, उसका अंतर्ज्ञान हमेशा होना चाहिए... क्योंकि सिस्टम में एक अपूर्णता रहनी ही है। [और हम कहते हैं कि किसी ने कह दिया या किसी ने लिख दिया तो वो सत्य है ! फ्लैक्सिब्ल होने के लिए 'वादियों' को गणित पढ़ना चाहिए :)]
अगर आपने कभी कंप्यूटर प्रोग्राम लिखा है तो आपको पता होगा इनफिनिट लूप क्या होता है। इसे हाल्टिंग प्रॉब्लम भी कहते हैं। गलती से ऐसा हो जाता है कि प्रोग्राम चलता ही रह जाता है हमेशा के लिए। सवाल ये है कि क्या ऐसा कोई तरीका हो सकता है जिससे पता लगाया जासके कि कोई प्रोग्राम ऐसे लूप में फँसेगा या नहीं? उत्तर – “नहीं” ! - अपूर्णता प्रमेय !
उसी तरीके से कोई ऐसा प्रोग्राम नहीं हो सकता जो कंप्यूटर के ऑपरेटिंग सिस्टम को छेड़े बिन वायरस का पता लगा सके। अर्थात प्रणाली के बाहर का लाना ही पड़ेगा - अपूर्णता !
यानी हमेशा ऐसे सच होंगे जो सिद्ध नहीं किये जा सकते या कुछ असत्य सत्य सिद्ध हो जायेंगे। और दूसरा प्रमेय ये कहता है कि अगर कोई प्रणाली अपने सिद्धांतो से स्वयं को संगत सिद्ध करती है तो वो प्रणाली ही असंगत है !
हमने फेसबूक पर लिखा था -
There will *always* be more true things than what we can know and prove...
... and there will *always* be things that, despite being true, cannot be proven to be true. (-incompleteness theorem)
…so its not strange if We know something is truth but we can't prove it and vice versa!
हरी ॐ तत्सत् !
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~Abhishek Ojha~