इसी दौरान गैल्वा पर एक बड़ी विपत्ति तब आई जब उसके पिता ने आत्म हत्या कर ली. किसी पादरी ने उसके परिवार के खिलाफ कुछ आपत्तीजनक कागजात जनता में बंटवा दिया. जिसके बाद उसके पिता ने आत्म हत्या कर ली. जब गैल्वा अपने पिता की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए आये उस समय सडको पर दंगे की सी स्थिति थी. इस घटना के बाद गैल्वा के दिमाग में एक बात घर कर गयी - ‘संसार में कहीं भी न्याय नहीं है !’
इस बीच शिक्षक बनने का ख्याल भी गैल्वा के दिमाग में आया पर उसके शिक्षकों ने गणित और भौतिकी में अच्छे अंक आने के बावजूद साहित्य में कम अंक आने पर टिपण्णी लिखी कि ‘इसे कुछ नहीं आता, कम मेधा का ये विद्यार्थी कभी शिक्षक नहीं हो सकता !’
इकोल पोलिटेक्निक की जगह अक्टूबर १८२९ में गैल्वा ने इकोल नोर्मले सुपिरियेर में दाखिला लिया लेकिन विद्यालय के प्रशासकों से राजनीतिक मतभेद के चलते उन्हें ‘अस्वीकार्य व्यवहार’ का बहाना लेकर दिसम्बर १८३० में निष्कासित कर दिया गया.
१९ वर्ष की आयु में बीजगणितीय समीकरणों पर गैल्वा ने उस समय तक के गणितीय सिद्धांतों से आगे काम करते हुए नए सिद्धांतों पर तीन नए शोध पत्र तैयार किये और उन पत्रों को फ़्रांस की अकादमी में उच्चतम पुरस्कार के लिए जमा किया. उन अद्भुत पत्रों और उनके रचयिता गैल्वा के साथ एक बार फिर बिडम्बना हुई. अकादमी के सचिव तक इस बार पत्र तो पँहुचे जिसे वो समीक्षा करने के लिए अपने घर तक भी ले गया लेकिन समीक्षा करने के पहले ही वो सचिव चल बसा ! गैल्वा के मन में संसार में अन्याय होने की भावना बढती गयी और वो रिपब्लिकन पार्टी में शामिल हो गया जो उस समय तक प्रतिबंधित कर दी गयी थी. जब उसने १८३० की क्रांति में भाग लेना चाहा तो विद्यालय के निदेशक ने उन्हें विद्यालय में ही कैद करवा दिया. इसके बाद गैल्वा ने विद्यालयों की पत्रिका गजेट दे एकोल्स में एक पत्र लिखा जिसके कारण ही उन्हें विद्यालय से निष्कासित किया गया था.
गैल्वा ने गणित पढाने की कोशिश भी की. पर वो अपने विचार ही पढाने लग जाते... नतीजा वही... विद्यार्थी मिले नहीं... जो मिले वो भी कुछ ही दिनों में भाग गए. गैल्वा ने अपने समीकरणों के सिद्धांत पर शोधपत्र छपवाने का आखिरी प्रयास पोसोन के कहने पर किया. लेकिन उसके बाद उसने अपने आपको पूरी तरह राजनीति और क्रांति को समर्पित कर दिया. इन्हीं द्दिनो गैल्वा ने लिखा ‘अगर जनता को आन्दोलित करने के लिए एक लाश चाहिए तो मैं अपना शारीर दान कर दूँगा !’
१८३१ में रिपब्लिकनों के एक सम्मलेन में वो राजशाही के खिलाफ बोला और रातों रात प्रसिद्द हो गया. लेकिन राजनीति में ये बात फ़ैल गयी कि गैल्वा ने उस सम्मलेन में राजा की जान लेने का संकल्प लिया है और अगले ही दिन उसे गिरफ्तार कर लिया गया. वकील ने ‘नरो वा कुंजरो’ नीति का सहारा लिया और कहा कि गैल्वा ने उस सम्मलेन में कहा था कि ‘मैं इस राजा की जान ले लूँगा अगर वो देशद्रोही हो जाता है’. वकील ने कहा कि शोर में बाद का हिस्सा सिपाही नहीं सुन पाए थे. गैल्वा ने इस बात को मानने से इनकार कर दिया... लेकिन फिर भी न्यायधीश ने उन्हें रिहा कर दिया.
पर अगले ही महीने उन्हें फिर सावधानी बरतने के नाम पर गिरफ्तार कर लिया गया. उस समय वो उस सेना की वर्दी पहने हुए थे जो प्रतिबंधित की जा चुकी थी और इस कारण से उन्हें तीन की जगह ६ महीने की सजा हो गयी. १८३२ के हैजा प्रकोप के समय उन्हें जेल से अस्पताल में स्थान्तरित कर दिया गया. ‘महत्त्वपूर्ण राजनितिक बंदी’ की श्रेणी में होने के कारण उन्हें यहाँ कोई दिक्कत तो नहीं होती थी. लेकिन किस्मत में कुछ और लिखा था...
इसी दौरान गैल्वा को पहली मुहब्बत हुई... जेल में कैदियों से मिलने वालों में एक हसीना भी थी. जिससे गैल्वा को प्यार हो गया. कई लोग मानते हैं कि वो उनके एक राजनितिक दोस्त की गर्लफ्रेंड थी. पर इस पर एकमत नहीं है. कुछ लोग उसे डॉक्टर की बेटी बताते हैं. इस मामले में भी उन्हें असफलता ही नसीब हुई और गैल्वा का दुनिया से भरोसा ही उठ गया. २५ मई १८३२ को उन्होंने ये बात अपने एक दोस्त को पत्र में लिखा था. ये प्यार गैल्वा के त्रस्त और उपेक्षित जीवन का आखिरी झटका साबित हुआ।
प्यार में मिले धोखे से निराश और दुखी पत्र लिखने के चार दिन बाद २९ मई को वो आराम और ध्यान करने के विचार से जेल से रिहा हुए थे. लेकिन इन चार दिनों के दौरान क्या हुआ किसी को ठीक-ठीक नहीं पता ! इसके बाद के मिले २-३ चिट्ठियों में गैल्वा ने बस इतना कहा कि उन्हें दो अन्य देशभक्तों से द्वंद्व (डुएल) की चुनौती मिली है जिसे वो मना नहीं कर सकते॰ गैल्वा की जीवनी लिखने वालों में से अधिकतर इसे प्यार वाले किस्से से जोडते हैं लेकिन कई इसे सिर्फ राजनीति से ही जोडते हैं. कुछ लोग इसे राजशाही द्वारा उनके खिलाफ किया गया षड्यंत्र भी मानते हैं.
गैल्वा को इस द्वंद्व में अपनी मौत का पूर्ण विश्वास हो गया था और उन्होंने अपने मित्र को लिखे एक पत्र में लिखा: ‘मुझे दो देशभक्तों ने द्वंद्व की चुनौती दी है – इसे अस्वीकार करना मेरे लिए असंभव था. मैं तुम दोनों से माफ़ी चाहता हूँ कि मैंने तुम्हे इसके बारे में पहले नहीं बताया. लेकिन मेरे विरोधीयों ने मेरे सम्मान को ललकार कर कहा था कि मैं किसी और देशभक्त को इसके बारे में ना बताऊँ. मेरे बाद तुम्हारा काम बहुत आसान है: ये साबित करना कि मैंने खुद नहीं चाहते हुए भी लड़ाई की... हर तरह की कोशिश करने के बाद त्रस्त होकर... मेरी यादों को बचा कर रखना क्योंकि भाग्य ने मुझे इतनी जिंदगी नहीं दी कि मेरा देश मेरा नाम जान सके. मैं मरता हूँ. तुम्हारा मित्र – इ. गैल्वास
इस पत्र को लिखने के बाद गैल्वा ने एक रात भर में अपने गणितीय सोच को कागज पर उतारने का फैसला किया. उन्हें पता था कि उनके पास बस आज की ही रात बची है। थोड़ी-थोड़ी देर बाद वो हाशिए पर लिखते जाते ‘मेरे पास समय नहीं है’. और कई बार बस अपनी सोच की रुपरेखा ही लिखते चले गए. ये एक रात का लिखा गणितीय खाका आने वाले समय में सदियों तक गणितज्ञों को व्यस्त रखेगा ये भला उनको कम मेधा का असामान्य विद्यार्थी कहने वाले शिक्षक कैसे सोच सकते थे ! उस रात ग्रुप्स और समीकरणों पर दिए गए उनके सिद्धांत विलक्षण और उच्च कोटि के थे (हैं). उन्होने उस रात कुल ६५ पन्ने लिखे।
१४ साल बाद लूविले ने उनके लिखे ६५ पन्नों को सम्पादित किया.
गैल्वा ने अपनी वसीयत अपने मित्र औगास्ते शेवेलियर को लिखी जिसमें उन्होंने लिखा था ‘मेरे दोस्त, मैंने गणितीय विश्लेषण में कुछ नए आविष्कार किये हैं. जैकोबी और गॉस से सार्वजनिक रूप से इस पर प्रतिक्रिया देने को कहना. उनसे ये मत पूछना कि ये सही हैं या नहीं बल्कि ये कि ये कितने महत्तवपूर्ण हैं ! मैं आशा करता हूँ कि बाद में कभी कुछ लोग ऐसे भी होंगे जिन्हें इस झंझट(मेस) को पढ़ना और सुलझाना उपयोगी लगेगा’। कौशी का नाम उन्होने पत्र में कहीं नहीं लिखा। उन्होने किसी अन्य फ्रेंच गणितज्ञ का नाम भी नहीं लिखा। जैकोबी और गॉस दोनों जर्मन थे।
२९ मई १८३२ को रात भर अपने विचार लिखने के बाद ३० मई को सुबह द्वंद्व हुआ. कुछ लोगों को एक खेत में अकेले असहाय घायल अवस्था में गोली लगे गैल्वा मिले जिन्हें वहाँ से अस्पताल ले जाया गया. जहाँ उनकी मौत ३१ मई को हुई. उन्होंने मरते समय पादरी की सहायता लेने से मना कर दिया और अपने छोटे भाई से कहा ‘रो मत, मुझे २० वर्ष की उम्र में मरने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए.’
उनके बारे में खूब लिखा गया है. लेकिन सिर्फ २० वर्ष की जिंदगी से बहुत दस्तावेज या जानकारी नहीं मिलती. ज्यादातर लेखक उनके जीवन के रोमांटिक किस्से को बहुत बढ़ा चढा कर लिखते हैं. जबकि उनके पत्रों से ज्यादा राजनीतिक पक्ष सामने आता है.
गणित की दृष्टि से गैल्वा ने इस कम उम्र में ही अद्भुत काम किये. अब्स्ट्रेक्ट अलजेब्रा के लिए उनके विचार क्रन्तिकारी थे. उन्नीसवीं सदी के अंत में जब फिल्ड के सिद्धांत का विकास हुआ तो पता चला कि इनमे से ज्यादातर बातें गैल्वा ने अपने पहले पत्र में ही कह दी थी. ग्रुप्स के सिद्धांत का भी विकास उन्ही के विचारों से हुआ. उनके लिखे पत्रों और बाद के कुछ शोधपत्रों को मिलाकर गणित में एक नयी विचारधारा का जन्म हुआ. समीकरणों का सिद्धांत, ग्रुप सिद्धांत, फाइनाईट फिल्ड और उनके नाम पर पड़ा गैल्वास सिद्धांत उनके गणित में महत्त्वपूर्ण योगदान हैं.
मरने के कुछ दिन पहले उन्होंने कहा था ‘कुछ लोग अच्छा करने के लिए धरती पर आते हैं लेकिन उसका अनुभव करने के लिए नहीं रह पाते. मैं भी शायद उनमें से एक हूँ!’.
गैल्वा को सार्वकालिक महानतम गणितज्ञों में गिना जाता है। आज उनका दो सौवां जन्मदिन है !
मैंने ये सब इन जगहों पर पढ़ा:
३. प्रिंसटन कम्पेनियन टू मैथेमेटिक्स
चित्र:विकिपीडिया से
~Abhishek Ojha~
बड़ी रोचक कहानी...पहली बार सुनी।
ReplyDeleteओह! एक जीनियस को प्रशंसा की नजर से देखना चाहूंगा। पर गेल्वा का जीवन जीना नहीं चाहूंगा। कदापि नहीं!
ReplyDeleteजिनीयस लोग थोडे सनकी होते है। न्युटन, पाल डीरेक भी कम नही थे। इन लोगो को तो कम से कम सम्मान मील गया लेकिन गैल्वा के जैसे एक अभागे एलन ट्यूरिंग थे.
ReplyDeleteगैल्वा के बारे में इतनी रोचक प्रस्तुति !
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट " जयप्रकाश नारायण" पर आपके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । शुभकामनाओं के साथ ।
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